लोक-मंगल में ही लगाते (kahani)

September 1986

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गृहस्थ होते हुये भी विरक्त कैसे रहा जा सकता है? बिना संतानोत्पादन के भी किस प्रकार पत्नी के सहयोग से आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण में निरत रहा जा सकता है? इस आदर्श को प्रत्यक्ष कर दिखाने वालों में रामकृष्ण परमहंस का जीवन एक प्रेरणाप्रद उदाहरण है।

उन्होंने सभी धर्मों का सार समझने के लिये उनके सिद्धान्तों और कर्म-काण्डों को समझने का प्रयत्न किया ताकि मतान्धता में उनकी मान्यताऐं एक पक्षीय हठवादी न रहें। सत्य तक पहुँचने के लिये वे समग्र चिन्तन के पक्षपाती थे। ईसाई, मुसलमान धर्मों का तथा तन्त्र-विज्ञान का भी उनने अवगाहन किया था। निराकारी वेदान्त दर्शन और साकारी प्रतीकोपासना की खाई उन्होंने पाटी और दार्शनिक दृष्टि से वेदान्ती और व्यवहारतः प्रतिमा पुजारी रहकर उन्होंने विग्रह को समन्वय में बदलकर दिखाया। दीन दुखियों की सेवा-सहायता में उनका अधिकांश समय बीतता था। चिकित्सा उपदेश तथा आशीर्वाद से उनने असंख्यों के कष्ट मिटाये।

परमहंस सिद्ध पुरुष माने जाते थे। उनने अपनी सिद्धियों का कभी प्रदर्शन नहीं किया। उन उपलब्धियों को वे लोक-मंगल में ही लगाते रहे। उनके प्रमुख शिष्यों में विवेकानन्द प्रसिद्ध हैं, जिनने अपना समूचा जीवन भारतीय संस्कृति की गौरव गरिमा से संसार भर को अवगत कराने में उत्सर्ग किया।


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