तन मन का समर्पण- सहयोग का अभिवर्धन

September 1986

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नेतृत्व आत्मश्लाघा के लिए- लोक कल्याण के लिए- प्रयुक्त करना हो तो उसके लिए भारी भरकम व्यक्तित्व चाहिए। भारी भरकम से मतलब यहाँ मोटे, रौबीले होने से नहीं वरन् इससे है कि उसके प्रति जनसाधारण में प्रामाणिकता एवं श्रद्धा कितनी गहरी है, यही वह मौलिकता है जिसके सहारे इस योग्य बना जाता है कि जो सुने, वह मिलने, भेंटने, देखने के लिए चला आवे और लौटे तब सहयोगी बन कर जाय। यह स्थिति एक ही प्रकार आ सकती है कि अपने को प्रामाणिक एवं उदार कर्मठ हर कसौटी पर कस कर सिद्ध कर दिया गया हो।

सस्ता तरीका गाल बजाने का है। कुछ थोड़ी-सी बातें रट ली जांय और उन्हीं को अभिनयपूर्वक दुहराया जाता रहे। कुछ गायकों के कंठ में मिठास और वक्ताओं की जीभ में रस होता है। उस सम्मोहन के सहारे वे मजमे लगाते और बाजीगरों जैसे कौतुक कौतूहल दिखाते रहते हैं। पर यह नट विदूषकों जैसा प्रहसन है, इससे कानों को रस मिलता है और उस विडम्बना को कौतूहल की तरह मंत्रमुग्ध होकर सुना जाता है। प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक को यह समझ लेना चाहिए कि अपना लक्ष्य प्रयोजन तथा क्षेत्र इतना गम्भीर और महत्वपूर्ण है कि उसके लिए वाचालता का श्रृंगार देर तक अपना आकर्षण नहीं बनाये रह सकता। ढोल की पोल एक नुकीली लकड़ी चुभाते ही खुल कर उजागर हो जाती है। बड़े बोल बोलने और बौना व्यक्तित्व लिए फिरने से अन्ततः उपहास के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता।

व्यक्तिगत परामर्श और समाधान करने– घर-घर अलख जगाने और जन्म दिन, पर्व संस्कार, नवरात्रि आयोजन आदि के अवसर पर वक्ताओं की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए उस संदर्भ में भी प्रवीणता प्राप्त कर ली जाय तो अच्छा है। इस कौशल का अभ्यास प्रज्ञा प्रशिक्षण सत्रों में करा भी दिया जाता है। पर यह भली भाँति समझ लेना चाहिए कि यह स्वस्थ बलिष्ठता नहीं, शृंगार सज्जा भर है। मात्र इतने के ही सहारे प्रगति पथ पर दूर तक द्रुतगति से नहीं बढ़ाया जा सकता। ठोस आधार वह है जो खरे सोने का होता है। प्रामाणिकता और उदार साहसिकता की अग्नि परीक्षा में से उन सभी को गुजरना पड़ेगा जो अपने प्राणवान नेतृत्व के सहारे जन मानस को सुधारना, उभारना एवं उछालना चाहते हैं।

इसके लिए आवश्यक नहीं कि मनुष्य के पास पहले से ही विद्या का भंडार, सहयोगियों का समर्थन एवं सेवा प्रयोजन के लिए कार्यक्षेत्र बना हुआ तैयार हो। व्यक्ति यदि खरा है तो उसकी निजी प्रतिभा इतनी समर्थ होती है कि वह अन्तःकरण से अन्तःकरण में प्रवेश कर सके और उपेक्षा बरतने वालों को भी कदम से कदम मिलाकर चलने और सहयोगी के रूप में विकसित होने के लिए तत्परता दिखा सके। यही तो मिशन को- मिशन के अंग अवयवों को चाहिए।


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