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September 1986

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वास्तविक उल्लास मन को संतुष्ट रखने पर मिलता है। इसलिये उन बातों से बचो जो असंतोष भड़काती हैं।

सुसंस्कारिता की परीक्षा तब होती है जब झगड़े के अवसर पर किस प्रकार सोचा और किस तरह व्यवहार किया गया, इस पर विचार किया जाये।

हरिद्वार में ही गुरुकुल काँगड़ी के समीप ही एक दूसरी संस्था है ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम। उसका आरम्भ साधन सम्पन्नता के साथ हुआ था, पर पीछे उन प्रयोजनों का कहीं अता पता भी नहीं रहा। इस भव्य इमारत के ध्वंसावशेष में से जो हिस्सा साबुत बच गया है उसमें कुछ सरकारी संस्थायें चलती हैं। संस्थापकों की योजना और इच्छा का वहाँ कहीं दर्शन भी नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि साधन कितने ही विपुल क्यों न हों पर यदि संस्था के संचालकों में उत्कृष्टता का अभाव है तो उससे उनके संचालकों की गरिमा में कमी न हो तो भी उसका पतन पराभव तो निश्चित है ही।

यदि पास में धन नहीं है या पूर्व संचित कोई बड़ी प्रतिष्ठा साथ में नहीं है तो इतने भर से किसी को उदास या निराश होने की आवश्यकता नहीं है। व्यक्ति का श्रम, समय एवं मन जब एकजुट होकर उसे उस सीमा तक पहुँचा देते हैं जिसे आश्चर्यचकित होकर देखना पड़े।

बाबा साहब आमटे महाराष्ट्र की एक कोर्ट में वकील थे पर उनकी अन्तरात्मा में एक उत्क्रान्ति हुई। सड़क पर पड़े भीख माँगते दुर्दशाग्रस्त कोढ़ियों को देखा। मन उबला कि क्यों न इस सुविस्तृत समुदाय को वापस मानवी गरिमा के अनुरूप जीवनयापन का अवसर दिलाया जाय। यह कार्य अनायास या स्वमेव नहीं हो सकता था। इसके लिए ऐसा नेता चाहिए जो कार्य में अपना शरीर और मन भी खपा दे। मात्र लेक्चर झाड़ने या लेख लिखने की विडम्बना ही न रचता रहे। नजर दौड़ाई तो ऐसा व्यक्ति एक ही दीखा-अपना आपा।

उनने कचहरी जाती साइकिल वापस लौटा ली। कोढ़ियों से बात की और उन्हें इसके लिए रजामंद किया कि वे अपनी मेहनत की कमाई से पेट भरेंगे और चिकित्सा के नियमों का पालन करते हुये रोग से छुटकारा पाने की भी पूरी चेष्टा करेंगे।

बाबा साहब आमटे ने वकालत छोड़ दी। वे कोढ़ियों के अतिरिक्त अपने आश्रितों को भी लेकर चन्द्रपुर (महाराष्ट्र) के समीप देहात में चले गये। वहाँ श्रमपूर्वक झोंपड़े बनाये। पशुपालन का धंधा शुरू किया, साथ ही कुष्ठ चिकित्सा का सरंजाम भी बिठाया। यह छोटा सा शुभारंभ क्रमशः आगे बढ़ता चला गया। सैकड़ों की संख्या में कोढ़ी और दूसरे प्रकार के अपंग आने शुरू हो गये। आवश्यकता ने नये आविष्कार किये। साथी और सहयोगी मिले। उनके अपने ही घर में बेटे, पुत्र-वधू व अन्य साथियों के रूप में। सफलता ने भरपूर वरदान दिये। इन दिनों वह स्थान अपंग सेवा कर्मियों का एक समर्थ विश्वविद्यालय है। इसमें चिकित्सा के लिए- स्वावलम्बन के शिक्षण के लिए भी आने वालों की संख्या बढ़ती ही रहती है। साधनों की कमी नहीं पड़ी। पिछले दिनों “भारत जोड़ो” अभियान जब उन्होंने चलाया तो अनेक युवा साथी इस चिरयुवा वृद्ध के साथ साइकिलों से भारत की यात्रा पर चले। यह जन सहयोग एवं सम्मान बताता है कि साधन एवं सहयोगी श्रद्धास्पदों के लिए सदा सुरक्षित रहे हैं और रहेंगे भी।

उदाहरणों की शृंखला में एक कड़ी और जुड़ती है- महामना मालवीय जी की। वे आरंभिक दिनों में एक छोटे वकील थे। कालाकाँकर नरेश का अखबार निकालने के लिए उनने नौकरी भी की। गुजारे भर की महत्वाकाँक्षा रही होती तो गाड़ी ऐसे भी चलती रह सकती थी, पर उनकी उमंग तो जनहित के लिए कोई ठोस काम करने के लिए प्रेरित कर रही थी। उनने योजना बनाई हिन्दू विश्व विद्यालय की स्थापना की पिछड़ेपन से लदी हिन्दू जाति को गतिशीलता अपनाने हेतु समर्थ बनाने की। आरम्भ जमीन से होता था सो योजना की उत्कृष्टता सुनकर काशी नरेश ने वह प्रबंध कर दिया। इमारत में करोड़ों व्यय होने थे। वे भिक्षा की झोली लेकर निकल पड़े। उन पर सहयोग बरसा और काम द्रुतगति से पूरा होने लगा। दुत्कारे जाते हैं अशिष्ट, अप्रामाणिक, बेतुके और चोर। मालवीय जी ऐसे नहीं थे फिर उन्हें सहयोग से वंचित क्यों रहना पड़ता। भव्य इमारत बनी। इसके बाद देश के मूर्धन्य स्तर के अध्यापक ढूंढ़े और नियुक्त किये जाने लगे। उस कार्य में भी बाधा न पड़ी। विद्यार्थियों की देश विदेश से इतनी बड़ी संख्या दौड़ी कि उन्हें संभालना कठिन हो गया। महानता की ख्याति और प्रतिष्ठा ने उन्हें शासन में काँग्रेस में ऊँचे पद प्रदान किये। अंग्रेजी सरकार “सर” की, विश्वविद्यालय ‘डाक्टर की’ विद्वत् सभाएँ पंडित शिरोमणि की पदवियाँ स्वीकार करने का आग्रह करती रहीं। पर उनने सब को नकारते हुये इतना ही कहा कि पंडित की जो पदवी अनायास ही मिल गई है, उसका दायित्व निभाने के लिए ही मुझे अभी बहुत कुछ करना है। फिर अन्य पदवियों का भार वहन किस प्रकार संभव हो सकेगा। समय, श्रम और मन साथ में लेकर महर्षि कर्वे महिला उत्कर्ष के लिए समर्पित हुये और उन्होंने महाराष्ट्र के लिए ही नहीं सारे भारत के लिए महिला जागरण और उत्थान का नया द्वार खोला। उनने अपने उपार्जन की ब्याज से बच्चों को पढ़ाया और मूलधन विनिर्मित मिशन के लिए समर्पित कर दिया। अपने आप से अपनाया गया श्रद्धासिक्त उदार साहस सदा फलता फूलता रहा है। कर्वे साधारण गृहस्थ थे, पर उनकी सेवा चेतना ने उन्हें “महर्षि” की पदवी प्रदान की। उनकी शताब्दी मनी और डाक टिकट प्रकाशित हुई।


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