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September 1986

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क्रोधी तुम्हारे विवेक की परीक्षा लेता है, और क्रोध यह पूँछता है कि तुम तर्क और प्रेम से उसका सामना कर सकते हो या नहीं?

सच बोलने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि यह याद नहीं रखना पड़ता कि तुमने कहाँ, कब, किससे क्या कहा था?

तपस्वी चाणक्य को कौन भूलेगा? वे स्वनिर्मित एकाकी कुटिया में रहते थे और न्यूनतम में निर्वाह करते थे। पर उनका व्यक्तित्व ही था जिसने एक से एक बड़े काम उन्हें सौंपे और पूरे कराये। वे उस बड़े साम्राज्य के प्रधान मंत्री थे। साथ ही तक्षशिला विश्व विद्यालय के सूत्र संचालक भी। उसके निमित्त भव्य भवन बने। दस हजार छात्रों की शिक्षा तथा निर्वाह व्यवस्था का साधन जुटा। योग्यतम अध्यापक दूर देशों से चलकर वहाँ समर्पित भाव से आ बसे। एक महान शक्ति के तत्वावधान में बने नालंदा व तक्षशिला विश्वविद्यालय उनके जीवन भर भारतीय संस्कृति की गरिमा को गगनचुम्बी बनाते रहे। न साधनों की कमी पड़ी, न सहयोग की। उन्हें इतना सम्मान प्राप्त था जिसके लिए बड़े-बड़े राजा भी तरसते रह सकते हैं। इस महान व्यक्ति के पास निज की पूँजी के रूप में उनका शरीर और मन ही था, जिसे उनने उच्च लक्ष्य के लिए- बिना आगा पीछा सोचे, बिना मन डुलाये पूरी तरह समर्पित कर दिया।

सम्राट अशोक के पास जब तक धन रहा तब तक वे बुद्ध मिशन के लिए मुक्तहस्त से देते रहे। अनेक समर्थ शिक्षण संस्थाएँ उनने बौद्ध प्रचारकों के लिए खड़ी कीं। अनेक शानदार स्मारक बनाये। स्वयं संन्यासी के रूप में धर्म प्रचार करते रहे। जब पूँजी चुक गई तब उनके पास दो बालक और बच रहे थे। बेटा महेन्द्र और बेटी संघ मित्रा। उन दोनों को भी उन्होंने परिव्राजक बनाया और सुदूर देशों में धर्म प्रचार के लिए भेज दिया। इससे पूर्व उनके मार्ग दर्शक भगवान बुद्ध ने भी तो अपने पुत्र राहुल को राजपाट करने से विरक्ति दिला कर बौद्धिक क्रान्ति के लिए लगा दिया था। इसी सब का प्रतिफल था कि साम्राज्य परिसर के सहस्रों युवक और युवतियाँ प्रव्रज्या लेकर देश देशान्तरों में परिभ्रमण के लिए चले गये।

बीज अपने खेत में बोया गया और उसकी जो फसल उगी उसने फिर से उगकर समूचे क्षेत्र को शस्य सम्पदा से भर दिया। परिस्थितियाँ किसी के अनुकूल नहीं होतीं जो उन्हें प्रतिकूल न रहने देकर अनुकूल बनाने में अपना तन, मन लगाता है और अनेक दिशाओं से साधनों और सहयोग की वर्षा होती दीखती है। आवश्यकता मात्र अवसर का लाभ उठाने एवं मानव जीवन की गरिमा समझने भर की है। महामानवों के जीवन के ये उदाहरण प्रत्यक्ष साक्षी हैं इस तथ्य के कि गलने वाला बीज कभी घाटे में नहीं रहता। प्रतिकूलताओं के बीच जलता एक दीपक भी अन्य अनेक दीपकों को प्रकाश ऊर्जा से ज्वलनशील बना दीपमालिका का उत्सव सजा देता है। यह धरती अभी बाँझ नहीं हुई है। साँस्कृतिक गरिमा से अनुप्राणित यह देवभूमि भारतवर्ष अभी अनेक महामानवों का सृजन करेगी, जो नवयुग की संभावना को साकार कर दिखाएंगे।


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