गुरूपर्व पर आकांक्षा की अभिव्यक्ति
उन दिनों दुहरे उत्तरदायित्व सामने थे। लंका दमन और राम-राज्य संस्थापन। इन्हीं को दूसरे शब्दों में दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन भी जा सकता है। दुष्प्रवृत्तियों ने अपना केन्द्र लंका दण्डकारण्य आदि को बनाया था, पर उनका प्रभाव व्यापक क्षेत्र में फैल चुका था। समर्थता का प्रभाव ही ऐसा होता है कि वह दुर्बलों को भय या प्रलोभन से अपना वशवर्ती कर लेती है। कुछ ऐसे भी होते हैं जो तथाकथित बड़ों का अन्धानुकरण करते हैं और जैसा भी कुछ भला बुरा प्रवाह बहता है, उसी के साथ हो लेते हैं। तिनके आँधी की दिशाधारा में ही उड़ते चले जाते हैं। उन दिनों सभी ने असाधारण दैत्यों के सामने सिर झुका दिये थे और उन्हीं के पीछे चलने लगे थे। इसलिए प्रथम कार्य उस भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट चरित्र का उन्मूलन करना था। दूसरा वह जिससे मानवी गरिमा के अनुरूप वातावरण बने और हँसती-हँसाती सुख चैन की जिन्दगी जीने का अवसर मिले। इसे सतयुग की वापसी, रामराज्य संस्थापन अथवा युग सृजन कह सकते हैं। काम दोनों ही एक से बढ़कर एक महत्वपूर्ण थे। किये दोनों ही जाने थे। न इनमें से किसी एक को कर गुजरना भर पर्याप्त होता और न किसी को छोड़ा जा सकता था। इसलिए महाकाल ने अपने प्रतिनिधि भेजे और दोनों को ही साथ-साथ सम्पन्न करा दिया।
दोनों ही कार्य एक दूसरे से कठिन थे। पहला चरण तो महा कठिन। दुर्दान्त असुरों से कौन जूझे? प्राणों की बाजी, प्रत्यक्ष लाभ न दीखने पर भी कौन लगाए? सीता हरण के उपरान्त लंकादमन आवश्यक हो गया था, पर दैत्यों से जूझने में तो विपत्ति है। मनुष्य हानि-लाभ का हिसाब जोड़ता और तब फूँक-फूँक कर कदम बढ़ाता है। अयोध्या से लेकर मिथिला तक राज्याध्यक्ष और बड़ी-बड़ी सेनाओं के नायक विद्यमान थे। पर कहीं से पता नहीं खड़का। रावण से लड़ने की- लंका पर चढ़ाई करने की किसी में भी हिम्मत न थी।
स्वर्ग के देवताओं ने सोचा कि हमें देवासुर संग्राम का अनुभव है और समय की प्रचण्ड पुकार भी हमें बुला रही है। हमें आगे चलना व मोर्चा संभालना चाहिए। उन सब ने रीछ-वानरों का स्वरूप बनाया और वे सुग्रीव-हनुमान-जाम्बवन्त की सेना में भर्ती हो गए। अंगद और नल-नील के साथी बनकर वे सभी अपना पुरुषार्थ दिखाने लगे। लंका विजय के उपरान्त अयोध्या लौटने के उपरान्त गुरु वशिष्ठ का इस दल से परिचय कराते हुए श्रीराम ने कहा- “यह सामान्य शरीरधारी असाधारण काम कर चुके हैं और मुझे भरत के समान प्रिय हैं” विजयोत्सव मनाने के उपरान्त वे राम राज्य स्थापना के रचनात्मक कार्यों में लगे और उस पूर्ति के उपरान्त ऊर्ध्व-उत्कृष्ट उस लोक को वापस चले गए, जिसे स्वर्ग के नाम से जाना जाता है।
घटनाक्रम की पुनरावृत्ति फिर होती है। सारी दुनिया में लंका पसर गई और कुंभकरण मेघनाद से लेकर खरदूषण, मारीचि अपने-अपने ढंग के माया जाल बिछाए बैठे हैं। शालीनता की, सज्जनता की, न्याय-विवेक की कमर टूट गयी है और नैतिक, बौद्धिक, सामाजिक क्षेत्र में अनाचार पूरी तरह संव्याप्त है। देवसंस्कृति का- मानवी गरिमा का- अपहरण सीता की तरह हो गया है। इस स्थिति में असुरता उन्मूलन का सरंजाम जुटाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। पर इस संघर्ष के लिए जुझारू योद्धा कहाँ से आएँ? लालची और विलासी नरपशुओं के बलबूते का यह काम नहीं। वे तात्कालिक लाभ छोड़कर आदर्शों के लिए त्याग-बलिदान की बात सोच भी नहीं सकते। इस प्रयोजन के लिए देवलोकवासी देवमानव ही चाहिए। भले ही वे प्रत्यक्षतः रीछ वानरों की तरह दुर्बल और साधन हीन प्रतीत होते हों। बल तो आत्मा में होता है, सो उनकी बलिष्ठ निकली। विजय तो होनी ही थी, समय तो बदलना ही था, अनाचार का पराभव सुनिश्चित था। भवितव्यता होकर रही। श्रेय के अधिकारी रीछ-वानर बने और एक दृष्टि से वे अजर-अमर हो गए।
यह उदाहरण प्रज्ञा परिवार के परिजनों पर पूरी तरह लागू होता है। युग संस्करण में दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन ही लंका-दमन है और सत्प्रवृत्ति संवर्धन को राम राज्य की स्थापना कहा जा सकता है। दोनों कार्य एक दूसरे से गुँथे हुए हैं। डाक्टर आपरेशन करके मवाद निकालता भी जाता है और साथ ही घाव भरने के लिए मरहम पट्टी का भी प्रयोग करता है। समय यही कर रहा है और उस कर्त्तव्य का श्रेय उन उँगलियों को मिल रहा है, जिन्हें अपने शब्दों में प्रज्ञा परिजन कह सकते हैं।
प्रज्ञा परिवार के साथ जुड़े हुए 24 लाख के लगभग व्यक्ति हैं। पर इनमें से पाँच लाख ऐसे हैं जो हिन्दी सहित विभिन्न भाषाओं में छपने वाली पत्रिकाओं के ग्राहक व नियमित पाठक हैं। वे उस देववाणी का एक-एक अक्षर हृदयंगम करते और जीवन-व्यवहार में उतारते हैं। इन्हीं के समर्थन-सहयोग से इतना बड़ा मिशन आकाश-पाताल चूम रहा है। उस रत्नराशि में से कुछ बड़े हीरे छाँटे गए हैं, जिनकी संख्या एक लाख निर्धारित की गई है। गुरुपूर्णिमा के अवसर पर ये पंक्तियाँ विशेष रूप से इन्हीं को संबोधित करके लिखी गई हैं। उस दिन जो शाँति कुंज में उपस्थित थे, उनने इस कथन को मुख से बोले जाते व कानों से सुने जाते भी अनुभव किया है।
कथन का प्रथम निष्कर्ष यह है कि वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्र अपने को देव मानव समझें और अनुभव करें कि यह जन्म उन्हें सम्पदा एवं विलासिता के व्यामोह में डूबे रहने के लिए नहीं मिला है। नियति का निर्धारण यह है कि वे युग की समस्याओं को सुलझाने के लिए अपने आपको भीम-अर्जुन समझें, अंगद-हनुमान मानें और वह करें जो नल-नील द्वारा असंभव को संभव करके दिखा दिया गया था।
प्रज्ञा पुत्रों को इस आपत्ति काल में लालसा, लिप्सा, तृष्णा, वासना और अहंता की महत्वाकांक्षाएं पूरी करने की छूट नहीं है। उन्हें दूसरा प्रयोजन देकर भेजा गया है, उसी को तत्परतापूर्वक करना है- सफलता-असफलता का, लाभ-हानि का विचार किए बिना। क्योंकि महाभारत विजय की तरह पाण्डवों की जीत निश्चित है। इससे पीछे हटकर अपयश ही कमाया जा सकता है, अपना लोक-परलोक ही बिगाड़ा जा सकता है। अच्छा हो कि ऐसा अवसर न आए। अच्छा हो कि यह सुनने के लिए, यह देखने के लिए कान व नेत्र, सक्रिय न रहें कि जिनके ऊपर आदर्शवादिता और उत्कृष्टता को जीवन्त रखने का दायित्व था, वे परीक्षा की घड़ी आने पर खोटे सिक्के की तरह काले पड़ गए और कूड़े के ढेर में छिप गए।