एक ही मक्खी दूध में पहुँचकर उसे अभक्ष्य बना देती है। एक ही दुर्गुण मनुष्य की अनेक विशेषताओं को नष्ट कर देता है।
विद्या उसे कहते हैं जो सन्मार्ग पर चलाये और विनयशील बनाए।
इस अराजकता जैसी अव्यवस्था से लोहा लेने के लिए कितने ही सुधारक कटिबद्ध होकर आगे आये और उन्होंने कुप्रचलनों के दुष्परिणाम सर्वसाधारण को समझाते हुये उससे विरत करने तक का घनघोर प्रयत्न किया और वह प्रयत्न इतना सफल रहा कि उस कृत्य में अनेक भावनाशील जुट गये। स्वामी दयानंद का नाम इस संदर्भ में बढ़-चढ़ कर लिया जा सकता है। महात्मा गाँधी का हरिजन सेवक संघ, ठक्कर बापा जैसे समर्थ समर्पितों की टोली साथ लेकर उस प्रयास में निरत ही रहा। इसके पूर्व कबीर, रैदास, तिरुवल्लुवर जैसे संत इस सुधार के लिए मजबूत पृष्ठभूमि बनाते रहे। सिख धर्म, बौद्ध धर्म, आर्य समाज आदि ने भी इस संदर्भ में बढ़-चढ़कर काम किया। अब संविधान और शासन ने भी इस प्रकार के भेदभाव को दण्डनीय अपराध ठहरा दिया है, तो भी प्रगति वैसी नहीं हुई जैसी कि होनी चाहिए थी। कानून तो दहेज और रिश्वत-खोरी, व्यभिचार आदि के विरुद्ध भी बना हुआ है पर मूढ़मति और धूर्तराज उस शिकंजे से अपने आपको किसी प्रकार बचा ही लेते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि प्रज्ञा अभियान इन कमियों की पूर्ति करने के लिए अपने को पूर्णाहुति की तरह समर्पित करे और किसी भी परिवार में जाति भेद, स्त्री उत्पीड़न की कहीं कोई भी घटना घटित न होने पाये। परिवार, व्यक्ति और समाज की मध्यवर्ती कड़ी है, भावी पीढ़ियों और वर्तमान जन समुदाय में से नररत्न निकालने की खदान भी। इसलिए परिवार निर्माण में जहाँ श्रमशीलता, मितव्ययिता, शिष्टता, सहकारिता, उदारता जैसे सद्गुणों का समावेश आवश्यक है, उतना ही यह भी अभीष्ट है कि नैतिक, बौद्धिक, और सामाजिक क्षेत्र की किसी भी दुष्प्रवृत्ति को प्रश्रय न मिले। समाज सुधार के लिए मार्टिन लूथर ने जिस प्रकार काम किया था और पोप के पडावाद के शोषण को उखाड़ फेंका था। उसी प्रकार की विचार क्रान्ति-धर्मक्रान्ति अपने देश में भी होनी चाहिए। मात्र वंश और वेश के कारण किसी को सम्मान मिले और देवताओं का एजेण्ट बन कर कोई जन साधारण को भ्रम-जंजाल में न फंसाये। निषिद्ध व्यापारों में एक भिक्षा व्यवसाय की कड़ी भी जुड़नी चाहिए। लोकसेवी ब्राह्मण कहलाते हैं। उन्हें निर्वाह प्राप्त करने का अधिकार है। इसी प्रकार जो अपंग, असमर्थ या विपत्तिग्रस्त हैं, उन्हें भी स्वावलम्बी न होने तक सहायता ग्रहण करते रहने का अधिकार है, पर जो ऋद्धि-सिद्धि, स्वर्ग-मुक्ति कमाने की स्वार्थ साधना में निरत होते हुए भी भगवान की दुहाई देकर अपनी श्रमशीलता से बचते हैं, मुफ्त का सम्मान और धन लूटते हैं, उन्हें रास्ते पर लाया जाना चाहिए और बताना चाहिए कि देश के 7 लाख गाँवों के लिए 60 लाख संत-महात्मा यदि लोक सेवी के रूप में उभरें तो नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक स्थिति में उत्साहजनक परिवर्तन कर सकते हैं।
समाज को ऊँचा उठाने के लिए शिक्षा क्रान्ति आवश्यक है। निरक्षरों को साक्षर बनाया जाय। वयस्क नर-नारियों के लिए प्रौढ़ पाठशाला चलायी जायं। स्कूली बच्चों को अवकाश के समय में बाल संस्कारशाला में सम्मिलित किया जाय ताकि जो कमी स्कूली पढ़ाई में रह जाती है उसकी पूर्ति हर गाँव हर मुहल्ले में स्थापित संस्कार-शालाओं में पूरी की जा सके। 78 करोड़ की आबादी में 70 प्रतिशत अशिक्षित भरे पड़े हैं। इन सबको शिक्षा और संस्कार प्रदान करने के लिए हर सुशिक्षित से शिक्षा-ऋण वसूल करने का अभियान चलाया जाय। यदि लोग अध्यापन के लिए निःशुल्क सेवाएँ देने लगेंगे और प्रतिभाशाली लोग जनसंपर्क बनाकर अशिक्षितों को पढ़ाने के लिए तैयार कर सकेंगे, तो जनआन्दोलन के रूप में शिक्षा समस्या का समाधान हो सकेगा।
शेखावाटी के स्वामी केशवानन्द ने यही किया था। उनने घर-घर में अनाज के मुट्ठी फण्ड रखवाये थे और उसी संग्रहित अन्न के सहारे हर गाँव में पाठशाला स्थापित करायी थी। वह सिलसिला उनके जीवन भर चलता ही रहा। इसी आधार पर अनेक हाईस्कूल, कालेज खुले और सफलतापूर्वक चले। राठ-हमीरपुर में भी स्वामी ब्रह्मानन्द जी ने अकेले ही अपने उस पिछड़े देहात में एक कालेज खड़ा किया। हम सभी को इस सामयिक शिक्षा चुनौती को स्वीकार करना चाहिए।