महाभारत के बाद पाँडवों का विशाल राजसूय यज्ञ सानन्द पूर्ण हो गया तो एक दिन उस यज्ञ की कीच में लोटने वाला नेवला निराश होकर रोते हुये देखा गया। लोगों ने इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि एक यज्ञ की कीच में लोटने से मेरा आधा शरीर सोने का हो गया था। उठा तब तक कीच सूख गई, इसलिये शरीर का दूसरा भाग सुनहरा न हो सका। मैं इस तलाश में कि और कोई बड़ा यज्ञ हो तो उसकी कीच में लोटकर शेष शरीर को भी सुनहरा करूं। इसी आशा से इस बहुविख्यात यज्ञ की कीच में लोटने बहुत दूर की कष्ट साध्य यात्रा करता हुआ, मैं आया था। पर यहाँ कुछ भी फल न मिलने से मैं दुःखी हो रहा हूँ।
लोगों ने पूछा इस अत्यन्त विशाल यज्ञ से भी बड़ा यज्ञ और कौन सा हुआ था? उसका विवरण बताओ। तब नेवले ने कहा एक बार बड़ा दुर्भिक्ष पड़ा। अन्न दुर्लभ हो गया। एक भिक्षाजीवी ब्राह्मण को सात दिन के बाद चार रोटी का अन्न मिला। ब्राह्मण, उसकी स्त्री, लड़का तथा लड़की चारों के लिये एक-एक रोटी बनी। पर पहले अपने से भी अधिक जरूरतमंद को देकर तब खाना यह धर्म मर्यादा है। इसलिये ब्राह्मण ने छप पर चढ़कर पुकारा कि हमसे अधिक भूखों का इस भोजन में हिस्सा है, कोई वैसा हो तो आवे, भोजन करे। इतने में एक चांडाल जो कंठगत प्राण हो रहा था, आया और उसने अपनी आवश्यकता बताई। ब्राह्मण ने अपनी रोटी दी पर उससे उसकी तृप्ति न हुई। तब ब्राह्मणी, पुत्र तथा कन्या ने भी क्रमशः उसे अपनी रोटियाँ दे दीं। उन्हें खाकर पानी पीने के पश्चात् उस चाँडाल ने जिस जमीन पर कुल्ला किया उस गीली जमीन में, मैं कुछ देर पड़ा रहा था। उठा तो अपना गीला आधा शरीर सुनहरा देखा। इसका कारण मालूम करने पर पता चला कि ब्राह्मण का चार रोटी देना एक विशाल यज्ञ के समान पुण्य कार्य था।
अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं की परवाह न करके भी जो दूसरों का उपकार करते हैं उनकी भावना के अनुरूप ही पुण्य भी महान होता है, कार्य चाहे छोटा ही क्यों न हो।