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September 1986

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धूप और छाँव का विवाद हल न हुआ तो दोनों विधाता के पास पहुँची और बोली- “महाराज! पृथ्वी पर हम में से एक को ही रहने का अधिकार दीजिये दूसरे को वहाँ से अलग कर दीजिए।”

विधाता बड़ी देर तक चुप रहे फिर पीड़ा भरे स्वर में बोले- “मुझे दुःख है कि तुम दोनों का अस्तित्व तो एक दूसरे पर ही आश्रित है। ईर्ष्या छोड़कर प्रेम से रहो और अपनी उन्नति करो।”

कई वर्ष इस प्रकार बीत गये। उन मुहल्लों में रहने वाले पिछड़े लोगों में से एक भी ऐसा न बचा जो किसी न किसी सहायता या फरियाद के लिए उनके पास न पहुँचा हो। स्नेह और सहायता ने सारे समुदाय का मन जीत लिया। सभी उन्हें अपना कुटुम्बी, सम्बन्धी मानने लगे और पूरी तरह उनके साथ घुल-मिल गये।

एक उच्च परिवार की ग्रेजुएट महिला उस इलाके में टहलने आया करती थी। एक लोकसेवी का इतना बड़ा परिवार और बिना धन वितरण किए उनका इतना समर्थन, सहयोग एवं उनका स्वयं का उत्थान उसे जादू जैसा लगा। वह अधिकाधिक गंभीरता से सब देखती गई। अन्त में उसने भी निश्चय किया कि इसी प्रकार का जीवन जियेगी और ऐसा ही जीवन बितायेगी। उसने कागाबा के सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखा। वे हँसे- अपना घर, कार्यक्रम तथा दारिद्र बताया, लोक सेवा में व्यस्तता भी। ऐसी दशा में वे पत्नी की नई जिम्मेदारियाँ कैसे उठा सकते थे। पूरी बात स्पष्ट हो गई। युवती ने कहा- वह भी उसी प्रकार ट्यूशन करके गुजारा करेगी। बच्चे पैदा होने की स्थिति न आने देगी। सिर्फ साथ रहने और कार्यों में हाथ बँटाने की आज्ञा चाहती है। कई महीने प्रसंग चलता रहा, ताकि जल्दबाजी में कोई गलत कदम न उठ जाय। विवाह हो गया और साथ ही सेवा कार्य भी दूनी प्रगति से होने लगा। अब तक मात्र शरीर और वचन भर से सेवा थी। अब दोनों ने निश्चय किया, जरूरतमंदों के लिए वे सम्पन्न लोगों से कुछ माँगकर लाया करेंगे। पैसा मिलने लगा और अनेकों रचनात्मक प्रवृत्तियाँ उस क्षेत्र में चलने लगीं।

चर्चा धीरे-धीरे पूरे जापान में फैली। धनिकों, उदारमनाओं ने कई सुधारात्मक कार्यक्रम उस क्षेत्र में आरम्भ किए। इसके बाद सरकार का ध्यान उस ओर गया। उसने सहायता की और कार्य की उपयोगिता देखते हुए पिछड़ों की सहायता के लिए एक अलग से विभाग ही बना दिया। कागाबा उसके इंचार्ज बनाये गये। करोड़ों रुपया साल का बजट पास हुआ और उस धन का उपयोग ऐसी सुव्यवस्था के साथ हुआ कि कागाबा के जीवन काल में ही उस देश में कहीं पिछड़ापन न रहा और जो दुष्प्रवृत्तियाँ उस क्षेत्र में पनपी थीं, वे जड़ मूल से उखड़ गईं।

कागाबा और उनकी पत्नी पूर्ण आयु तक जिए। वे मरते दम तक पिछड़ों की सेवा कार्य में लगे रहे। उन्हें निजी क्षेत्र से तथा सरकारी क्षेत्र से इन कार्यों के लिए विपुल सहायता मिली। इसका कारण था उपलब्ध धन का श्रेष्ठतम सदुपयोग। कहीं एक पैसे की भी गड़बड़ी न होने देना। इस स्थिति ने हर किसी के मन में श्रद्धा उत्पन्न की। सहायता भी दी और उससे भी अधिक उनकी सहायता भी की।

कागाबा अब नहीं हैं। उन्हें और उनकी पत्नी को गुजरे मुद्दतें बीत गईं पर उनकी चर्चाएं पाठ्य पुस्तकों से लेकर छोटे-बड़े इतिहासों, ग्रन्थों के पृष्ठों पर बड़े सम्मान के साथ अंकित हैं। उन दोनों के चित्र जापानवासियों के घरों में अभी भी उसी श्रद्धा के साथ टाँगे जाते हैं, जैसे कि भारत में शिव-पार्वती या सीता-राम के।

कागाबा को जापान का गाँधी कहा जाता है। समीक्षकों और सलाहकारों की कागाबा से अक्सर भेंट होती रहती थी। वे लोग कहते थे- “हम लोगों की सलाह के अनुसार आप कहीं बैरिस्टर, अफसर, उद्योगपति, नेता या और कुछ बने होते तो स्वयं को अपने देश को और समूची मानवता को संभवतः इस प्रकार धन्य न बना पाते जैसा कि आपने पिछड़े लोगों के लिए श्रम करते हुए, कष्ट सहते हुए बनाया।” साथियों में से जिनने सम्पदा कमाई और मौज उड़ाई, वे अपनी तुलना कागाबा से करते तो अपने को मूर्ख और उन्हें बुद्धिमान बताते। सच्ची बुद्धिमानी और गहरी सफलता इसी मार्ग में है कि मनुष्य अपने को सेवा प्रयोजन के लिए उत्सर्ग करे और असंख्यों के लिए एक आदर्श, एक उदाहरण बने।


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