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September 1986

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लोग क्या कहते हैं इस पर ध्यान न दो। सिर्फ यह देखो कि जो करने योग्य था, वह बन पड़ा या नहीं।

जिस प्रकार हरिद्वार में एक महीने में परीक्षा होती है और प्रमाण पत्र मिलता है उसी प्रकार इन क्षेत्रीय प्रज्ञा प्रशिक्षण सत्रों में भी 15 दिन में परीक्षा हो जाया करेगी और केन्द्र की ओर से प्रमाण पत्र दिया जाया करेगा। एक लाख प्रशिक्षित कार्यकर्ता तैयार करने के संकल्प को केन्द्रीय तथा स्थानीय सत्र मिल जुलकर पूरा करने पर उतरेंगे तो वह भी अन्य संकल्पों की तरह पूरा होकर रहेगा।

जिन्हें अपने यहाँ प्रज्ञा पाठशाला चलाने की उमंग है, जो प्रशिक्षण सत्र की व्यवस्था कर सकते हैं, वे अपना प्रयोजन शान्ति कुंज लिख भेजें, साथ ही जो कार्यकर्ताओं के 20-20 दिन के जितने खण्ड अध्यापन कार्य के लिए निकल सकते हों वे भी इसके लिए सूचित करें। पूर्व तैयारी अभी से आरंभ की जा सकती है। कार्यान्वित करने का कदम तो किसी भी दिन उठाया जा सकता है।

यह भी आशा की जा रही है कि प्रज्ञा पाठशालाओं प्रशिक्षण सत्रों का शुभारम्भ सभी प्रज्ञा पीठों और प्रज्ञा मंडलों में भी होने लगेगा। इनकी संख्या भी उतनी ही अपेक्षित है जितने कि प्रशिक्षित परिजन हैं। उनमें से प्रत्येक प्रज्ञा संस्थान को एक प्रशिक्षण क्रम अपने यहाँ तो आरंभ कर ही देना चाहिए। प्रयत्न यह भी करना चाहिए कि उनके संयोजकत्व में एक या दो ऐसे ही प्रज्ञा सत्रों का और भी शुभारम्भ हो।

प्रथम पन्द्रह दिन का शुभारम्भ क्रम चलाने के लिए केन्द्र से दो प्रशिक्षक भेजे जाने की जो व्यवस्था बनी है। उसे एक शुभारम्भ भर कहना चाहिए, अन्त नहीं। पन्द्रह दिन पढ़े छात्रों को अपना अभ्यास वर्षों चलाना और अनुभव वर्षों बढ़ाना होगा। यह कार्य स्थानीय लोगों में से जो अतिरिक्त प्रतिभा एवं उदार साहसिकता वाले हों वे उसे आगे भी चलाते रहें और यह प्रयत्न करते रहें कि हर प्रज्ञा मंडल में जिन गाँवों या मुहल्लों को सम्मिलित किया गया है, उन सब में कुछ दिनों के लिए थोड़े-थोड़े समय की पाठशालाएँ चलें और वे अपनी विशिष्टता को क्रमशः बढ़ाती रहें। हर सत्र या पाठशाला में न्यूनतम बीस या चौबीस व्यक्ति तो होने ही चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति 15 दिनों में इतना सक्षम हो जाएगा कि वह अपना, परिवारजनों एवं अन्यों का जन्म दिवस पर्व एक कुण्डी यज्ञ के माध्यम से मना सके, अपनी झिझक मिटाकर जन संपर्क के लिये अनिवार्य सम्भाषण की क्षमता हस्तगत कर सके, युग-नेतृत्व की क्षमता अर्जित कर सके। एक लाख यज्ञों एवं एक लाख देव मानवों के सृजन का उद्देश्य इसी प्रकार पूरा होगा।

जहाँ भी प्रज्ञा सत्र आयोजित हों अथवा नियमित शिक्षण चले, वहाँ शिक्षण के लिए आवश्यक सामग्री संगीत उपकरण, निर्धारित पाठ्य पुस्तकों के सैट, यज्ञ मण्डप बनाने की सामग्री एवं दृश्य-श्रव्य साधनों को जुटाने की अर्थ-व्यवस्था भी कर लेनी चाहिए। हर छात्र की न्यूनतम चालीस-पैंतालीस रुपये की सामग्री अपने पास रखनी चाहिए, ताकि उसके सहारे अपनी योग्यता बढ़ाने के अतिरिक्त अन्यान्यों को भी सिखाते रहने का क्रम चल सके। केन्द्र से भेजे गए दो अध्यापकों के ठहरने, भोजन-प्रबन्ध की व्यवस्था के अतिरिक्त मार्ग व्यय आदि देने की आवश्यक अर्थ व्यवस्था तो क्षेत्रीय आयोजन समिति को करनी ही होगी।

अगले दिनों जैसे-जैसे मिशन का स्वरूप, क्रियाकलाप एवं विस्तार बढ़ेगा, वैसे-वैसे अधिक जन शक्ति की ही नहीं, साधन शक्ति की भी आवश्यकता पड़ेगी। इसके लिए एक ही सरल उपाय है कि बीस पैसा नित्य वाले ज्ञान घट और एक मुट्ठी अन्न दैनिक रूप से देने वाले धर्म घट बड़ी-से-बड़ी संख्या में स्थापित किये जाएँ। उनकी मासिक वसूली का भी प्रबन्ध हो। इतना ही नहीं, उस राशि के आय-व्यय का पूरा हिसाब हर महीने सदस्यों को सुना समझा दिया जाय, ताकि संदेह, अविश्वास की कहीं कोई गुंजाइश न रहे। इस आधार पर मिशन के वे सभी बढ़ते हुए कार्यक्रम पूरे होते रह सकते हैं, जो दस सूत्री कार्यक्रम के अंतर्गत आते हैं तथा आवश्यकतानुसार और भी अधिक बढ़ाये जा सकते हैं।

गुरु पर्व को आदान-प्रदान का आधार माना जाय। इस वर्ष के उच्चस्तरीय अनुदान में यह आशा की जाय कि वाह्य जीवन की कठिनाइयों को सरल बनाने तथा प्रगति का पथ-प्रशस्त करने का अवसर मिलेगा। साथ ही जीवन को प्रकाश, प्रतिभा से, यश प्रतिष्ठा से भर देने वाली नेतृत्व की क्षमता भी हस्तगत होगी। इसमें आत्म संतोष और आत्म गौरव का भी गहरा पुट लगा हुआ है। इस प्रकार के अनुदान का आश्वासन निश्चित ही साकार होकर रहता है।


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