संगति का असर इसलिये पड़ता है कि वह सोये हुए संस्कारों को जगा देती है। भले बुरे संस्कार सभी में हैं, पर वे तब तक नहीं जागते जब तक कि आग को ईंधन की तरह संगति न मिले।
वस्तुतः समय की नियमितता और व्यस्तता ऐसा गुण है जिसके सहारे सामान्य मनुष्य भी दूसरों की तुलना में अनेक गुनी प्रतिभा अर्जित कर सकता है। आश्चर्यजनक रीति से उत्कर्ष के आधार हस्तगत करता चल सकता है।
आत्म निर्माण, परिवार निमार्ण के साथ प्रगति का तीसरा क्षेत्र है- समाज निर्माण। यह तीनों एक साथ चल सकते हैं। अन्न, जल और वायु तीनों ही एक साथ प्रयुक्त किये जाते हैं। उसी प्रकार आत्म निर्माण, परिवार निर्माण एवं समाज निर्माण के तीनों ही काम साथ-साथ चलाए जा सकते हैं।
इन दिनों सभी का ध्यान राजनैतिक नेता बनने का है। पर उस डिब्बे में भीड़ अत्यधिक भर गई है। साथ ही पहले जगह प्राप्त करने और ऊँची कुर्सी पर बैठने की ललक भी इतनी तीव्र है कि अपना उल्लू सीधा करने के लिए जो हथकण्डे अपनाये जाते रहते हैं, नौसिखिये को इससे भी बढ़कर अपनाने पड़ेंगे, जो बन भी न पड़ेंगे और बेकार की बदमगजी खड़ी होगी।
स्वयं चुनाव लड़ने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है कि अपने हाथ में इतना प्रभाव रखा जाय कि जन साधारण को इशारा करते ही इच्छित प्रयोजन की पूर्ति हो जाय। चुनाव जीतने पर माला पहनने का तात्कालिक लाभ तो मिलता है, पर जिनने भी वोट दिये थे वे अपने और अपने परिचित संबंधियों के उचित अनुचित काम कराने के लिए दबाव डालते हैं। वे हो तो पाते नहीं। ऐसी दशा में समझा यह जाता है कि हमारी उपेक्षा हुई। फलतः जहाँ पुरानी संचित मित्रता थी, वह टूट जाती है और बेकार का विग्रह मनोमालिन्य खड़ा होता है। इस झंझट में स्वयं न पड़ कर दूसरों को, अधिक आतुर लोगों को उस स्थान पर खड़ा करना चाहिए और अपने प्रतिनिधि के रूप में वे कार्य करने चाहिए जो उचित एवं आवश्यक हैं।
समाज सेवा के क्षेत्र में सबसे बड़ा काम जन मानस का परिष्कार है। इस हेतु प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत चलाये गये कार्यक्रमों की पूर्ति में जुटाना चाहिए। नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति का निर्धारित लक्ष्य यदि पूरा किया जा सके तो समझना चाहिए कि कायाकल्प जैसा परिवर्तन हुआ और उसके फलस्वरूप वह माहौल बना जिस कारण मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का लक्ष्य पूरा हो सकेगा।
रचनात्मक कामों में जन्मदिवसोत्सव और झोला पुस्तकालय की दो प्रक्रियाएं ऐसी हैं जो देखने में सामान्य प्रतीत होते हुये भी व्यक्ति निर्माण और परिवार निर्माण की अति महत्वपूर्ण भूमिकाएँ सम्पन्न कर सकती हैं। यद्यपि इनमें अन्य काम करते हुये बचा हुआ समय लगाने के ही प्रयास नियमित रूप से चलता रह सकता है एवं उनका प्रभाव परिणाम हाथों हाथ देखा जा सकता है। दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखना भी ऐसा कार्य है जो हर रास्ता चलते को प्रभावित करता है।
अपने समाज में प्रचलित अनेक बुराइयों में सबसे बुरी और बड़ी है- दान-दहेज वाली खर्चीली शादियों की धूमधाम। इससे बाल विवाहों की भी बढ़ोत्तरी होती है और दोनों परिवारों की इस प्रदर्शन में बर्बादी भी हो जाती है। इस तथ्य को जन साधारण को समझने-समझाने की स्थिति उत्पन्न करनी चाहिए और ऐसे सामूहिक विवाह कराने चाहिए जिनमें दहेज, जेवर, बारात, धूमधाम जैसी विडम्बनाओं का नाम भी न हो। इस आन्दोलन के लिए अभिभावकों और विवाह योग्य बालक बालिकाओं से प्रतिज्ञा पत्र भराये जाने चाहिए। जहाँ यह निर्वाह हो रहा हो, उन्हीं में अपनी उपस्थिति रखनी चाहिए अन्यथा विरोध में असहयोग तो किया ही जा सकता है। ऐसे आयोजन किन्हीं शुभ दिनों में सामूहिक रूप से करते रहने चाहिए, जिनसे दोनों पक्षों को सम्मान भी मिले और साथ ही दर्शकों के मन में उसी का अनुकरण करने का उत्साह भी उत्पन्न हो। यह अपने समाज की भारी समस्या और विपत्ति है। उसके समाधान में यदि हम सब जुट सकें तो इतने भर से विचारशीलता की वृद्धि और आर्थिक बर्बादी की रोकथाम का बड़ा काम हो सकता है।
इसी के समतुल्य शिक्षा संवर्धन भी है। बड़ों के लिए प्रौढ़शालाएँ और स्कूली बच्चों के लिए बाल संस्कार शाला, व्यायामशाला जैसे सरंजाम जुटाये जा सकें तो सामाजिक प्रगति का स्वरूप अविलम्ब निखर सकता है। हमें ऐसे ही कार्य में संलग्न होकर अपना सेवा भावी नेतृत्व अर्जित करना चाहिए।