प्रगति के लिए संघर्ष करो। अनीति को रोकने के लिए संघर्ष करो, और इसलिए भी संघर्ष करो कि संघर्ष के कारणों का अन्त हो सके।
क्या जन साधारण के सामान्य प्रयासों से भी ऐसा कुछ हो सकता है, जिसे महान कहा और गर्व किया जा सके? इस प्रश्न के उत्तर में शान्ति कुँज की कार्यपद्धति, आवक एवं व्यय-व्यवस्था का बारीकी के साथ अध्ययन करना चाहिए। एक मुट्ठी अनाज या दस पैसा जैसा तुच्छ अनुदान एकत्रित करके नालंदा विश्वविद्यालय स्तर का प्रशिक्षण, ईसाई चर्चों जैसा संगठन और कम्युनिस्टों से बढ़कर युग साहित्य किस तरह लिखा एवं फैलाया जा सकता है, यदि इसमें सन्तोषजनक जैसा कुछ दीख पड़े तो उसे सही स्तर पर नेतृत्व की क्षमता एवं व्यवस्था ही माना जाना चाहिए।
हिन्दू समाज में धर्म के नाम पर इतना दान पुण्य होता है जितना संसार भर की इस मद में दी जाने वाली राशि से बढ़कर माना जा सकता है। पर दुर्भाग्य इतना ही है कि यह सूझ नहीं पड़ता कि गाढ़ी कमाई से अर्जित और श्रद्धासिक्त इस राशि को किन प्रयोजनों में खर्च किया जाय। सौंपते समय ग्रहणकर्त्ता की प्रामाणिकता जाँची जाय कि वह उस उपलब्धि को कहाँ, कब, किन कार्यों में खर्च करेगा?