नेतृत्व इस तरह अर्जित करें

September 1986

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नेतृत्व का अर्थ है वह वर्चस्व जिसके सहारे परिचितों और अपरिचितों को अंकुश में रखा जा सके, अनुशासन में चलाया जा सके। आमतौर से मनुष्य अनगढ़ होते हैं। वह बंदर की औलाद भले ही न हो, पर उसकी प्रवृत्ति बंदर जैसी अवश्य है। अस्थिर, अनिश्चित माहौल से प्रभावित, वह कभी कुछ सोचता है, कभी कुछ। कभी कुछ करता है, कभी कुछ। मदारी ही है जो उसे लकड़ी का भय दिखाकर बताई हुई रीति-नीति अपनाने के लिए प्रशिक्षित करता है। मन की उपमा भी बंदर से दी गई है। वह बे सिलसिले की कल्पना उछल कूद करने में लगाता रहता है और दाँव लगाता है तो ऐसा भी कुछ कर गुजरता है जिसे बेतुका उपहासास्पद ही नहीं, प्रताड़ना योग्य ठहराया जा सके। छोटे बच्चे जगने से लेकर सोने तक ऐसी ही उछल कूद करते रहते हैं। उनकी भाग दौड़ का न कोई प्रयोजन होता है न लाभ। मन मर्जी चलाने में उन्हें मजा आता है। इशारे से समझाने पर मानते नहीं। उन्हें काबू में रखना, शिष्टाचार बरतने के लिए सहमत करना, पढ़ने जैसे किसी उपयोगी काम में लगाना तभी संभव होता है, जब उनके पीछे व्यवहार कुशल अध्यापक या अभिभावक लगें। यही नेतृत्व है।

जंगली हाथी की उद्दंडता सभी जानते हैं। पर महावत है जो अंकुश के सहारे सीधे रास्ते चलाता है, युद्ध कौशल सिखाता है। बोझ उठाने या क्रियाएँ बदलने के लिए बाधित कर देता है। इससे एक कदम बढ़कर सरकस के रिंग मास्टर अपना कौशल दिखाते हैं। वे सिंह जैसे खूँखार की पीठ पर बकरा बिठाकर उसका वाहन बनाने के लिए तत्पर करते हैं। यही नेतृत्व है। सेनापति को शत्रु से लड़ने की रणनीति ही नहीं बनानी पड़ती, नये रंगरूटों को ढंग से कवायद करना और निशाना साधने की शिक्षा भी देनी पड़ती है। इससे भी बढ़कर वह अनुशासन गले उतारना पड़ता है जिसके कारण वह मशीन की तरह काम करे। अपनी मर्जी को कहीं आड़े न आने दे।

सभी महत्वपूर्ण कार्य होते तो श्रम, साधन आदि के सहारे हैं। पर उनका नियोजन-नियंत्रण किसी अनुभवी साहसी और सूझबूझ वाले क्रियाकुशल आदमी के ही बस की बात होती है।

पानी का स्वभाव निचाई की ओर बहना है। मनुष्य का स्वभाव भी ऐसा ही है। उसे दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए आसानी से उत्तेजित और प्रोत्साहित किया जा सकता है। उथले स्वार्थ को लोग तनिक से लाभ के लिए स्वीकार कर लेते हैं भले ही उसमें उनके गौरव और भविष्य को चोट लगती हो। आदर्शों की दिशा में स्वयं को घसीट ले जाना असाधारण साहस भरा कौशल है। प्रज्ञा परिजनों के कंधों पर यही जिम्मेदारी आई है। उसे निबाहने के लिए उन्हें काफी सुदृढ़ और अनुभवी होना चाहिए। यह अनुभव-अभ्यास अपने आपे से आरंभ करना चाहिए। अपनी दुर्बलताओं, त्रुटियों, भूलों एवं बेतुकी आदतों से निपटने का पहला मोर्चा संभाला और जीता जाना चाहिए।


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