सामाजिक क्रान्ति का प्रज्ज्वलन (kahani)

September 1986

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किसकी मैत्री किन से है, यह पता लगा लेने के उपरान्त उसका चरित्र जानना कुछ भी कठिन नहीं रह जाता।

अपनी प्रसन्नता दूसरे की प्रसन्नता में लीन कर देने का नाम ही प्रेम है।

सौंदर्य पर अपने को निछावर करना वैसा ही है जैसा कि किसी -बंदर का मदारी’ के हाथों पराधीन हो जाना।

प्राचीन काल में सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, तप, योग आदि की अनेक साधनाओं के विधान थे। इस युग में यदि औसत नागरिक स्तर का निर्वाह और छोटे से छोटा निजी परिवार रखा जा सके तो समझना चाहिए कि उन हजार व्यवधानों का हल निकल आया जो किसी सहृदय व्यक्ति को लोकमानस का परिष्कार करने के निमित्त कदम बढ़ाने में पग-पग पर अवरोध खड़े करते हैं। इतना आत्म-संयम बरतने के उपरान्त यह प्रश्न उठता है कि पुण्य परमार्थ की दृष्टि से क्या किया जाना चाहिए? विश्व संकट के दलदल में फँसे हुए जन समुदाय को उबारने के लिए क्या होना चाहिए?

कोई समय था जब अवसर न होने या आलसी, अनगढ़ आदतों से घिरे रहने के कारण लोग अभावग्रस्त रहते और भूखों मरते थे। आज वैसी स्थिति नहीं है। यदि परिश्रमशीलता, मितव्ययिता और दूरदर्शिता सिखायी जा सके, दुष्प्रवृत्तियों, कुरीतियों, मूढ़ मान्यताओं से बचाया जा सके तो रोजी रोटी का प्रश्न सहज ही हल हो सकता है। समय संयम, अर्थ संयम, इन्द्रिय संयम और विचार संयम अपनाने की बात यदि गले उतर सके तो कोई भी व्यक्ति प्रगतिशील बन सकता है। अज्ञान, अभाव और अशक्ति से बच सकता है। भलमनसाहत अपनाने पर मिल बाँटकर खाने और हँसते-हँसाते जीने का सुयोग किसी को भी समुचित मात्रा में उपलब्ध हो सकता है।

जिस मार्गदर्शन की आज आवश्यकता अनुभव की जा रही है, वह है निकृष्टता का निरस्तीकरण, दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन, भ्रष्ट चिन्तन एवं दुष्ट आचरण का निराकरण। इसी को दूसरे शब्दों में नैतिक, धार्मिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान कहा जा सकता है। यही करने योग्य है। यही होना चाहिए। मनुष्य ने अपने को भीतर और बाहर की सड़ी कीचड़ से लपेट लिया है। इसी की धुलाई, सफाई होनी चाहिए। टूटे हुए धातु खण्डों की गलाई ढलाई करके उसे ऐसे औजार उपकरणों में बदला जाना चाहिए जिससे उपयोगी प्रयोजन सध सकें। कष्ट पीड़ितों, गरीबों को रोटी कपड़ा, बीमारों को दवा दारू बाँटकर उनकी सामयिक सहायता हो सकती है पर सदा सर्वदा के लिए समाधान ढूँढ़ना है, तो उन्हें स्वावलम्बी बनाने की स्थिति तक पहुँचाना होगा। इसमें साधनों की कम और साहस भरे प्रयासों की अधिक आवश्यकता पड़ती है। संक्षेप में यही है व्यक्ति निर्माण या जन मानस का परिष्कार जिसे समग्र तत्परता के साथ प्राणपण से एकजुट होकर किया जाना चाहिए। यही है युग निर्माण योजना की, प्रज्ञा-अभियान की विचारणा एवं कार्य पद्धति। इसे विचार क्रान्ति अभियान या ज्ञानयज्ञ के रूप में भी जाना जाता है। इसे क्रियान्वित करने के लिए नैतिक क्रान्ति, बौद्धिक क्रान्ति एवं सामाजिक क्रान्ति का प्रज्ज्वलन किया गया है। लाल मशाल इसी का प्रतीक प्रतिबिम्ब है।


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