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September 1986

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प्रकृति अपनी परम्परा नहीं बदलती। वह हर अकर्मण्य पर रद्दी की मुहर लगाती और कूड़े के ढेर में पटकती जाती है।

प्रताप के सम्मुख प्रस्तुत जीवन-मरण की कठिनाई का हल उदारचेता भामाशाह ने किया। उनके पास व्यवसाय संग्रहित सम्पदा थी, जिस पर कुटुम्बी और रिश्तेदार दाँत लगाये हुए थे। उन सबकी मान्यता थी कि उत्तराधिकार में जो हिस्सा मिलेगा, उसी के सहारे-मौज की जिन्दगी कटेगी। जब उनने यह सुना कि भामाशाह राणा की सहायता के लिए अपनी सम्पदा समर्पित करने वाले हैं, तो वे सभी आग बबूला हो गये। गृह कलह चर्म सीमा तक पहुँच गया, किन्तु शाह ने अपने विवेक को इतने पर भी जीवित रखा। कर्त्तव्य भी पाला और आदर्श भी निभाया। उनके पास जो विपुल सम्पदा थी उस सबको समेट कर राणा के चरणों पर सत्प्रयोजनों के निमित्त अर्पित कर दिया। परिवार के किसी सदस्य से सलाह नहीं ली और न उनके विरोध की परवाह की। परिणाम स्पष्ट है। राणा की रगों में नया रक्त उछला। नई योजना बनी। नये सिरे से संग्राम शुरू हो गया और इतिहास के पृष्ठों में वह वीरता अमर हो गई। श्रेय तो वीरता को ही मिला, पर जो गहराई तक प्रवेश कर सकते हैं, वे उसके पीछे अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए भामाशाह के उदार साहस को जोड़े बिना नहीं रह सकते।

ऐसे उदाहरण एक नहीं अनेक हैं। नवयुग निर्माण के लिए प्रयत्नरत विश्वामित्र को राजा हरिश्चन्द्र ने अपना धन ही नहीं, परिवार और शरीर तक समर्पित कर दिया था। आद्य-शंकराचार्य जब देश के चार कोनों में चार मठ बनाने के लिए व्याकुल थे, तब साधनों का अभाव उनके सामने प्रमुख बाधा बनकर खड़ा था। मान्धाता ने अपनी सारी सम्पदा उसी प्रयोजन के लिए लगा देने की प्रतिज्ञा की और निभायी। यदि वे वैसा साहस न कर सके होते, कोई और वैसा उदार न मिला होता, तो देश के चार कोनों पर चार धाम देश की एकता और अखण्डता को साँस्कृतिक आधार पर सुदृढ़ एवं सुनिश्चित बनाने की योजना का कौन जाने क्या हुआ होता? इस संबंध में कौन क्या कह सकता है?

गान्धी जी ने स्वतंत्रता आन्दोलन का नेतृत्व तो किया ही, साथ ही वे रचनात्मक कार्यों को सँभालने के लिए भी व्याकुल थे। खादी, चरखा, सर्वोदय, बुनियादी तालीम, कुटीर उद्योग, हरिजन उत्कर्ष, प्राकृतिक चिकित्सा आदि कितने ही कामों को हाथ में लिया हुआ था। साबरमती आश्रम, सेवाग्राम, पवनार, उरली काँचन आदि स्थानों में अपने-अपने ढंग की प्रवृत्तियाँ चलती थीं। इन सभी के लिए पैसे की आवश्यकता रहती थी। वह अन्य साधनों से भी जुटता था। पर आत्यन्तिक उत्तरदायित्व जमनालाल बजाज ने उठाया था। उनने अपने आप को गान्धी जी का चौथा पुत्र घोषित किया था। समर्थ बेटे की जिम्मेदारी है कि अपनी उचित आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए श्रवण कुमार की भूमिका निभाए। श्री बजाज ने स्वेच्छा से यही उत्तरदायित्व वहन किया। वे पता लगाते रहते थे कि बापू की कोई प्रवृत्ति पैसे के अभाव में रुक तो नहीं रही है। अड़ी हुई आवश्यकता को वे अपने पास से-साथियों को दबाकर उतना साधन हर हालत में जुटा देते थे, जिससे बापू को अर्थ संकट के कारण अपनी योजनाओं में कटौती न करनी पड़े। जानने वाले जमनालाल बजाज को दूसरा भामाशाह कहते हैं।


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