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September 1986

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उपहार लेना हो तो इस विश्वास के साथ लो कि उसे समय रहते ब्याज समेत चुका दिया जायगा। अन्यथा उपहार के साथ तुम्हारा मूल्य गिरेगा।

बच्चे बाल कक्षाओं से लेकर स्नातक स्तर तक का- उससे भी आगे विशेष विषयों- का ज्ञान प्राप्त करते हैं, किन्तु यह सब अनायास ही नहीं हो जाता, इसके लिए स्कूली वातावरण का- अध्यापकों का- पुस्तकों का- सहारा लेना पड़ता है। यों हृदयंगम शिक्षार्थी स्वयं ही करता है पर इसके लिए विशेषताओं का, विशेष परिस्थितियों का आश्रय लेना अनिवार्य स्तर पर आवश्यक हो जाता है। बिना सहायता के किसी ने उच्चस्तरीय ज्ञान स्वयं अर्जित किया हो उसके उदाहरण कहीं कदाचित ही दीख पड़ते हैं। आत्म ज्ञान-तत्व दर्शन की उपलब्धि के लिए आरम्भ में प्रत्यक्ष गुरु की और बाद में “अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं विश्व चराचरम्” रूपी समष्टि चेतना के सम्मुख अपने को समर्पित करना पड़ता है। इसके बिना मनुष्य दिग्भ्रान्त और अनगढ़ ही बना रहता है।

मानवी सत्ता की महत्ता इसी दृष्टि से है कि उसे उपयुक्त माध्यमों से मोड़ा, मरोड़ा, सुधारा, संभाला जा सकता है। चतुर माली अपने उद्यान को रंग बिरंगे फूलों, सुमधुर फलों और नयनाभिराम शोभा सम्पदा से भरपूर बना देता है। इसमें पेड़ पौधों की अपनी विशेषता का जितना महत्व है उससे कहीं अधिक माली की कलाकारिता का है। यदि वह खाद-पानी, निराई-गुड़ाई, छँटाई-रखवाली की समग्र प्रक्रिया में चूक करे, तो समझना चाहिए कि झाड़ झंखाड़ों का झुरमुट ही खड़ा हो जायगा। प्रकृतितः पौधे झाड़ झंखाड़ों का रूप ही धारण करते हैं। यह कुशल कलाकार की साधना ही है जो तुच्छ वस्तुओं को कुछ से कुछ बना कर रख देती है।

कपड़ों के टुकड़े से दर्जी बढ़िया पोशाक सीकर देता है। धातुओं के टूटे-फूटे टुकड़ों को स्वर्णकार आकर्षक आभूषणों में बदल देता है। कागज और कूँची के सहारे चित्रकार बहुमूल्य तस्वीरें बनाते हैं और मूर्तिकार के छैनी-हथौड़े पत्थर के टुकड़े को देव प्रतिमा के रूप में पूजे जाने योग्य बना देते हैं। वाद्य यंत्रों में लगी सामग्री कौड़ी के मोल की होती है, पर वे जब कारीगर की तत्परता के साथ जुड़ते हैं, तो वादन का ऐसा सुयोग बिठाते हैं कि गायक के स्वर में चार चाँद लगने लगें। कला की, कला-कौशल की जितनी महिमा गाई, बताई और समझी-समझाई जाय उतनी ही कम है। आत्म चेतना और उसकी विलक्षण गरिमा का हमें बोध होना चाहिए किन्तु साथ ही यह भुला नहीं देना चाहिए कि अनगढ़ को सुगढ़ बनाने वाले तंत्र की भी अपनी महत्ता और आवश्यकता है। इसके बिना न हाथी पर सवारी गाँठी जा सकती है और न शेर से सरकस वाले करतब कौतूहल दिखाने का आधार खड़ा होता है। संसार की अगणित महती विभूतियों में एक यह भी है कि सामान्य को असामान्य बना देने वाले कलाकार के साथ गुँथ जाने का उसे सुयोग मिल जाय।

बहुमत की अपनी उपयोगिता है, पर वह वोटों की गिनती तथा जुलूस, प्रदर्शन, मेले ठेले की भीड़-भाड़ तक ही सीमित है। साधारणतया मनुष्य को बंदर की औलाद कहकर जीव विज्ञानियों द्वारा संबोधित किया जाता है। प्रकृति की उपज में वह भी एक पशु वर्ग का प्राणी है और उदरपूर्णा, आत्मरक्षा, वंश-वृद्धि जैसी मोटी जानकारियों से अवगत है।

“हे लोगो! मैं जो कुछ कहूँ वह परम्परागत है। इसलिए उसे सच मत मानना। तुम्हारी पूर्व परम्परा के अनुसार है, इसलिए उसे सच मत मानना। कदाचित् वैसा ही होगा, यह समझ कर उसे सच मत मानना। तर्क सिद्ध है ऐसा समझ कर उसे सच मत मानना। लौकिक प्रचलन है, ऐसा मानकर उसे सच मत मानना। सुन्दर लगता है इसलिए उसे सच मत मानना। तुम्हारी श्रद्धा पोषक है, इसलिए उसे सच मत मानना।”।

“मैं प्रसिद्ध साधु हूँ- पूज्य हूँ। ऐसा मानकर कथन को सच मत मानना। परन्तु यदि तुम्हारी विवेक बुद्धि को मेरा उपदेश सच मालूम हो तो ही उसे स्वीकार करना।”

-बुद्ध

जनसंख्या की वृद्धि यों जंगलों को बसाने और श्रमिकों को बटोरने में काम भी आ सकती है। पर इन दिनों जिस प्रकार जनसंख्या विस्फोट हो रहा है उस पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि यह भी महायुद्ध या महामारी स्तर की विपत्ति है। उत्पादन बरसाती मेंढ़कों और मक्खी मच्छरों को भी मात दे रहा है। खाद्य, शिक्षा, चिकित्सा, बेरोजगारी, आपाधापी, मूढ मान्यता, यातायात स्तर की दृश्य और अदृश्य समस्याएँ निरन्तर बढ़ती चली जा रही हैं। वे व्यक्ति परक, पदार्थ परक और घटना परक तीनों स्तर की हैं। उनका समुच्चय भयावह से भयावह तर और तम होता चला जाता है। कारण कि न तो वर्तमान पीढ़ी का बहुसंख्यक भाग ऐसा है जो अपनी समस्याओं का समाधान कर सके और न इस स्तर का है कि अपने द्वारा उत्पादित कोरे कागजों पर कुछ सुन्दर सी- लकीरें बना सके। स्पष्ट है कि जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ समस्याओं की विद्रूपता अगले दिनों और भी अधिक बढ़ती जायगी। संग्रहित सुसंस्कारों का अभाव पूरा कर वर्तमान में सत्प्रवृत्तियों- सत्प्रयोजनों को बढ़ाने की दिशा में प्रयत्नशील होने का पौरुष दिखा सकें, यह कार्य हर परिवार में निजी रूप से होना चाहिए था, पर उनकी स्थिति और स्तर देखते हुये वैसी आशा करना व्यर्थ है। फलतः नया मार्ग ही खोजना पड़ेगा और प्राचीनतम परम्परा को पुनर्जीवित करना होगा। उन दिनों गृहस्थ, ब्राह्मणों और विरक्त परिव्राजकों का बहुत बड़ा समुदाय लोक शिक्षण की महती जिम्मेदारी को वहन करता था। अपने निजी स्वार्थ, निजी पराक्रम से इसी लक्ष्य को पूरी तरह नियोजित किये रहता था कि जन स्तर के किसी भी पक्ष में गिरावट न आने पाये। किसी क्षेत्र का, किसी भी परिस्थिति का व्यक्ति भौतिक या आत्मिक दृष्टि से गई गुजरी परिस्थितियों में न रहने पाये। इसके लिए वे लोगों को अपने यहाँ बुलाने जमा करने की आशा नहीं करते थे वरन् बादलों की तरह जाकर हर खेत पर बरसते और तालाब को पानी से लबालब भरते थे। यही थी, एक मात्र वह रहस्य भरी परम्परा जिसने इस देश के नागरिकों को तैंतीस कोटि देवता स्तर का बनाया था और इस भारत भूमि को स्वर्गादपि गरीयसी होने का सम्मान संसार भर की जनता से दिलाया था।

आज की स्थिति में उस सतयुगी परम्परा को पुनर्जीवित करने का और कोई उपाय नहीं। यद्यपि यह है अति कठिन। क्योंकि प्राचीन काल में इस परमार्थ प्रयोजन में असंख्यों व्यक्ति लगे मिलते थे और उन्हें देखकर एक दूसरे को प्रेरणा मिलती थी। समस्याओं को भी आपस में मिल बैठ कर समझते और सुलझाते थे। पर अब तो ऐसा कहीं भी कुछ भी दीख नहीं पड़ता। हर व्यक्ति स्वार्थ साधन में लगा है और पतन तथा कलह के बीज बो रहा है। ऐसी दशा में अन्तःप्रेरणा के आधार पर युग समस्या को समझते हुए लोक मानस के परिष्कार का कार्य कौन हाथ में ले? अकेले के बलबूते कोई व्यापक कार्यक्रम कैसे बने? और जब निराशा, असफलता और उपहास का वातावरण चारों ओर दीखे तो किस बलबूते अपने पैरों को लम्बे समय तक टिकाये रह सके? यह भावनात्मक कठिनाई ऐसी है जो विचारशीलों और साधन-सम्पन्नों को भी कुछ करने नहीं देती। फिर उनका तो कहना ही क्या जिन्हें शिक्षा की कमी, सहयोग का अभाव तथा आर्थिक तंगी जैसे अनेकों अवसाद घेरे खड़े रहते हैं।

लोक मानस इन दिनों महाभारत के चक्रव्यूह की तरह फंसा पड़ा है। इसे बिना उबारे काम चलता नहीं और उपेक्षा बरतने पर रही बची आशा पर भी तुषारापात होता है। मार्ग दर्शन आज की महती आवश्यकता है, पर उसकी पूर्ति के लिए उपयुक्त मार्ग दिखाने वाला अग्रगामी भी तो चाहिए।


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