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September 1986

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क्रोध आवे तो उसे जल्दी विदा कर दो रात भर अपने साथ मत सोने दो।

जो विवेक का अपहरण करले, वह क्रोध नहीं पागलपन है।

भाग्य एक कोरा कागज है, उस पर जो चाहो सो लिख सकते हो।

ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं, जिनमें मनस्वी लोगों ने अपना श्रम समय नियोजित करके अपनी निजी योग्यता भी बढ़ाई और सेवा इस स्तर की कि जिसका उत्कर्ष आश्चर्यजनक रीति से होता रहा।

स्वामी विवेकानंद जब विदेश यात्रा पर गये तो किराये भर का प्रबंध किसी प्रकार एक छोटे से (खेतड़ी) राज्य के नरेश ने कर दिया था। पर उनकी लगन इतनी गहरी थी कि हर किसी पर वे अपना प्रभाव छोड़ते चले गये। विश्व के मूर्धन्य बुद्धिजीवियों को उनने प्रभावित किया। भारत वासियों ने उन्हें संस्कृति का विश्व रत्न माना। अनेक देशों में उनने धन साध्य रामकृष्ण मिशन खड़े किये। वेल्लूर (दक्षिणेश्वर) में संगमरमर का रामकृष्ण मठ बनवाया। इसके लिए कितने साधनों की, कितने सहयोगियों की आवश्यकता पड़ी होगी, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

अमेरिका के तीन राष्ट्रपतियों के नाम ऐसी गणना में आते हैं जिनके घर परिवार की स्थिति दयनीय थी। वे पोषण और निर्वाह का आवश्यक खर्च जुटाने की स्थिति में नहीं थे। गरीबों के सहयोगी भी माँगने वाले होते हैं देने वाले नहीं। उनका सहायक उनका निजी चरित्र और प्रयास भर था जिनके कारण वे जनता के हृदय सम्राट बने और राष्ट्रपति की उच्च पदवी तक जा पहुँचने में सफल हुये। अब्राहम लिंकन चुनावों में बार-बार हारते रहे। पर उन्हें विश्वास था कि आज नहीं तो कल वे वह कर या करा सकेंगे जो चाहते हैं। लिंकन वकील थे पर उनने झूठा मुकदमा एक भी नहीं लड़ा। मुवक्किलों के प्रति उनकी पूरी सहानुभूति थी। इसलिए कोट के पीछे जेब लगा रखी थी कि परिश्रम उनकी योग्यता या मेहनत को देखते हुये नहीं वरन् अपनी सामर्थ्य जितना ही चुकायें और जेब में डालकर चले जायं। इससे यह प्रतिफल होता था कि लिंकन को यह पता तक नहीं चल पाता था कि उन्हें किसने क्या दिया। किसी प्रकार रोटी मिल जाती थी, इतना ही बहुत था। वे पूरी सचाई और मेहनत से काम करते, साथ ही अपनी योग्यता भी बढ़ाते रहते। इसका ही प्रतिफल था कि प्रत्येक न्यायाधीश उनका सम्मान करता था और उन्हें एक वकील की तरह नहीं, प्रत्यक्षदर्शी गवाह की तरह मानता, अनुभव करता था। यही कारण है कि उनके हाथ में गये मुकदमे प्रायः सभी जीते जाते थे। ऐसी ही अपने-अपने ढंग की विशेषतायें गारफील्ड और वाशिंगटन में थीं। उनने अपना अध्ययन माँगी हुई पुस्तकों से पूरा किया था। बचपन में वे मजदूरों जैसा श्रम करते थे और अपने गुजारे की व्यवस्था अपनी निज की कमाई मजदूरी के सहारे पूरी करते थे। इस गरीबी से उनका मान घटा नहीं वरन् बढ़ता ही चला गया और अन्त में वे बेताज के बादशाह बने।

स्वामी श्रद्धानंद ने अपना घर बेचकर झोंपड़े बनाये थे। उन्हीं का नाम गुरुकुल काँगड़ी रखा। दस विद्यार्थी वे कहीं से ढूँढ़ कर लाये। उन्हें पढ़ाने का ही नहीं, रोटी बनाने खिलाने तक का काम वे स्वयं करते थे। इसका प्रतिफल यह हुआ कि वे छात्रों के अध्यापक ही नहीं अभिभावक और मार्ग दर्शक भी बन गये। गुरुकुल काँगड़ी से आरंभिक दिनों में जो छात्र निकलते थे उनने अपनी छवि से अगणित लोगों को प्रभावित किया था और जनसाधारण के मन में इतनी श्रद्धा उत्पन्न की थी कि वह संस्था आज विशाल विश्वविद्यालय के स्तर तक पहुँच चुकी है।


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