नेतृत्व की असाधारण शक्ति सामर्थ्य

September 1986

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देवताओं के गुरु बृहस्पति थे और दैत्यों के शुक्राचार्य। दोनों ही समुदाय बड़े थे और सशक्त भी। महत्वाकाँक्षा भी उनकी कम न थी और वर्चस्व बनाये रहना चाहते थे। इतने पर भी यह जानते थे कि अपनी-अपनी मनमर्जी चलाने पर काम नहीं चलता। एक अनुभवी, दूरदर्शी एवं परिस्थितियों का सही मूल्याँकन कर सकने वाला नेतृत्व भी चाहिए अन्यथा बुहारी की सींकों की तरह बिखराव होता है, पारस्परिक मन मुटाव बढ़ता है और उस आपा-धापी में सशक्तता अपव्यय के गर्त में जा गिरती है।

देवताओं का स्वर्गलोक ऊर्ध्वगमन के साथ जुड़ता था, दैत्य अधःपतन के पाताल में रहते थे। इतने पर भी मार्ग दर्शन दोनों को चाहिए। सज्जनता का आरंभ में आक्रान्ताओं का शिकार बनना और शठ के साथ शठता न बरतने के कारण घाटा रहता है किन्तु अन्ततः चिरस्थायी विजय उन्हीं की होती है। पूजा प्रतिष्ठा में आगे वे ही रहते हैं। यह तथ्य बृहस्पति के तत्वावधान में देवताओं ने भली प्रकार जान लिया था। बीच-बीच में अड़चने आते रहने पर भी वे उसी स्थिर नीति को अपनाये रहते हैं। दैत्यों की दिशा धारा दूसरी थी। आक्रमण करते थे। उसका लाभ भी मिलता था पर पीछे सारी कमाई गँवा बैठते थे और बुरी तरह पिटते थे। जो भी हो दर्शन तो एक उनका भी था और उसे शुक्राचार्य की रणनीति कहते हैं। शुक्र की चतुरता में कमी नहीं थी वे अपने शिष्य बलि को वामन की याचना पर भूमिदान के विरुद्ध थे। यहाँ तक कि उनने जल पात्र में सूक्ष्म शरीर से प्रवेश करके संकल्प में अड़ंगा लगा दिया था। भले ही पीछे इस दुराग्रह में उन्हें एक आँख गंवानी पड़ी। देवता और दैत्य अपना-अपना अस्तित्व लम्बे समय तक इसीलिए बनाये रह सके कि उन्हें समर्थ नेतृत्व का लाभ मिलता रहा।

पाँचों पाण्डव साधन रहित थे। कौरव स्वयं भी सौ थे और उनके पास सुगठित विशाल सेना भी थी। न बराबरी थी, न धर्म पक्ष के जीतने की आशा। फिर भी कृष्ण ने ऐसी योजना बनाई जिससे सत्य ही जीता और धर्मराज ही सिंहासनारूढ़ हुये। राम के लंका युद्ध में भी बराबरी नहीं थी। दुर्दान्त दैत्यों से निहत्थे रीछ वानरों को लड़ाना प्रत्यक्षतः एक खिलवाड़ ही था, पर सलाहकार जाम्बवन्त का लम्बा अनुभव काम आया और उस स्तर की सफलतायें हाथ लगीं जिन्हें चमत्कार ही कहा जा सकता है।


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