अपनी रोटी बाँट कर खाओ, ताकि बदले में स्नेह और सहयोग की बहुमूल्य सम्पदा लेकर वापिस लौटो।
इस मार्गदर्शन के लिए कोई विशाल भवन खड़े करने की आवश्यकता नहीं है। इसे जन संपर्क, जन समर्थन एवं जन सहयोग से ही सम्पन्न किया जा सकता है। इसके लिए घर-घर अलख जगाने और गाँव-गाँव धर्म प्रचार, आयोजन करने की पुरातन पद्धति को ही नये साधनों और नये कार्यक्रमों के साथ सम्पन्न करना होगा। महामारी के मरीज प्रान्त भर से इकट्ठे होकर एक अस्पताल में जमा हों, इसकी अपेक्षा यही उचित है कि चिकित्सक गाँव-गाँव फेरी लगायें और जिन्हें मरीज पायें उन्हें परहेज बतायें, औषधि खिलायें और जिसे सेवा सहायता की आवश्यकता है उसका प्रबन्ध करें। मार्ग दर्शकों की आवश्यकता साधु ब्राह्मण स्तर के चरित्रवान और सेवाभावी व्यक्ति ही पूरी कर सकते हैं। उनका अभाव दीखता तो है पर वस्तुतः है नहीं। प्रज्ञा परिवार की सुसंस्कारी आत्माएँ आगे बढ़कर समय की इस पुकार को पूरा करने में समर्थ हो सकती है। महाकाल की चुनौती वे अस्वीकार न होगी।