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September 1986

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जिसमें आत्मबल नहीं होता, उसकी श्रद्धा भी नहीं टिकती।

कथा श्रवण से मात्र कर्त्तव्य बोध होता है। उसे सुनने में न स्वर्ग मिलता है न भगवान।

अच्छे संकल्प करो ताकि अच्छे मार्ग पर चल सकना सम्भव हो सके।

मार्गदर्शक की महिमा उस दिन देखी गई, जब श्रावस्ती क्षेत्र में भयंकर अकाल पड़ा हुआ था और नित्य ढेरों प्राण त्याग रहे थे। इनमें से कम से कम बालकों को तो बचाया ही जाता था। तथागत ने श्रेष्ठजनों को बुलाया और इतने धन की माँग की जिससे अभीष्ट उद्देश्य पूरा हो सके। माँग बड़ी थी। अनुदान थोड़ा। सर्वत्र निराशा छाई हुई थी। इस वातावरण को चीरती हुई एक लड़की उठी-सुप्रिया। उसने कहा- “यह दायित्व मेरे ऊपर छोड़ दीजिए। मैं उसे पूरा कर दिखा दूँगी।” वह घर-घर गयी और जिस भी रसोई में धुँआ निकलता दीखा, उसमें प्रवेश करके घर मालिकों की करुणा जगाई और आग्रहपूर्वक आधी रोटी पाई। प्रातः से रात तक वह इसी प्रयास में जुटी रहती और इतना खाद्य एकत्रित कर लेती जिससे भूखे बालकों का पेट भर जाता। भूख से उसने किसी भी शिशु को मरने नहीं दिया। अगणित धनाढ्यों से बढ़कर थी उसकी योजना और तत्परता जिसकी सफलता को चिरकाल तक स्मरण किया जाता रहेगा। नेतृत्व आखिर नेतृत्व ही है, वह साधन और सहयोग कहीं से भी जुटा लेता है।

जिन दिनों 2400 प्रज्ञा पीठों के लिए इमारतें खड़ी करने का निर्धारण हुआ था। उन दिनों उस संकल्प की पूर्ति के लिए प्रायः धनहीन लोग ही आगे आये थे और उनने सहयोग जुटाकर उस अभूतपूर्व देश भर में फैले हुये संकल्प को पूरा कर दिखाया।

बम्बई में एक ट्रस्ट है- “बाप का घर” जिसमें विधवायें, परित्यक्तायें, अपंग, अनाश्रित महिलायें जब ससुराल और पितृगृह से निराश हो जाती हैं, तो बान्द्रा के उस “ बाप के घर” में जा पहुँचती हैं और मान मर्यादा के साथ अपना पूरा जीवन काट लेती हैं। बच्चों को भी स्वावलम्बी बना लेती हैं। इस ट्रस्ट का निर्माण किसी करोड़पति ने नहीं किया। भावनाशीलों की एक प्रामाणिक मंडली उठ खड़ी हुई। सहयोग की किसी महान कार्य के लिए कभी कमी नहीं पड़ी। “बाप के घर” की इमारत और खर्च के लिए स्थायी पूँजी का प्रबंध भी सहज ही होता गया और वह विनिर्मित हो गया जिसकी संसार भर में चर्चा है।

बम्बई में ही एक दम्पत्ति ने यह निश्चय किया कि वे निराश्रित घूमने वाले अनाथ बालकों की शिक्षा व्यवस्था करेंगे और उनके लिए निर्वाह साधन भी जुटायेंगे। उनने नगर में होते रहने वाली शादियों की सूची बनाई ओर शुभकामना के साथ संदेश भेजने शुरू किये कि यदि उत्सव के उपरान्त कुछ खाद्य पदार्थ बच जाय तो इसे अनाथालय को दिया जाये। जूठन जो इधर उधर फेंकनी पड़ती थी, संभालकर रखी जाने लगी। शिन्दे दम्पत्ति ने एक पुरानी-सी गाड़ी का भी प्रबंध कर लिया और उसमें दिन भर बचे हुये खाद्य को ढोया और जमा किया जाता रहता। अनाथालय के बालक ही नहीं, निराश्रित अपंग जन भी वहाँ से क्षुधा निवारण के साधन प्राप्त कर लेते।

‘बाप का घर’ हो या अनाथालय इसकी व्यवस्था किन्हीं उर्वर और भावनाशील पुरुषार्थी मस्तिष्कों ने ही की। यदि वे आलस्य प्रमाद में लोभ-मोह में दूसरों की तरह डूबे रहते तो न ऐसी सुन्दर कल्पनाएँ उठती और न उनकी पूर्ति के लिए स्त्रोत खुलते।

विहार प्रान्त के एक गाँव का एक किसान पारिवारिक कामों को समर्थ देख कर स्वयं किसी महत्वपूर्ण कार्य में जुट जाने की बात सोचने लगा। उसने अपने खेत पर आम के कुछ पेड़ लगा रखे थे। उनसे मनुष्य, पशु और पक्षी तक प्रसन्नता भरा लाभ उठाते थे। किसान को सूझा कि ऐसे ही आम्र कुँज लोग अपने-अपने खेतों पर लगाने लगें तो कितना अच्छा हो। विचार संकल्प में बदला और उसने क्रियान्वित होना आरंभ कर दिया। हजारी किसान हर किसान के घर गया। उसने दूर गाँव के लोगों से संपर्क साधा और आम्र कुँज लगाने के लाभ बताने के साथ-साथ उनकी स्थापना के लिए आग्रह किया। कितनी ही जगह तो वह अपने घर से पौधे लेकर पहुँचा और सिंचाई रखवाली के उपाय बताता रहा। फलस्वरूप उसके जीवन काल में ही हजार आम्र उद्यान उस क्षेत्र में लग गये और वह क्षेत्र “हजारी बाग” जिला कहलाया। इसे कहते हैं- नेतृत्व।


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