अष्टाँग योग का महत्वपूर्ण सोपान समाधि

November 1986

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समाधि राजयोग का अन्तिम चरण है। योगों में प्रधान चार हैं। एक- राजयोग, दूसरा- हठयोग, तीसरा- मंत्रयोग, चौथा- लययोग। इन सबके अपने अपने प्रतिफल हैं। सर्व साधारण के लिए अधिक सरल और अधिक उपयोगी राजयोग बताया गया है। अन्य योग अधिक तैयारी अधिक तत्परता-तन्मयता चाहते हैं। पर राजयोग उतने एकान्त या विरक्ति की अपेक्षा नहीं करता। वह साधारण एवं स्वाभाविक जीवन-क्रम के साथ ही चलता रहता है।

राजयोग के निर्धारित क्रम में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान के सात चरणों को पूरे करने के उपरान्त अन्तिम प्रयोग समाधि का आता है। लोग उसे अधिक कौतूहलवर्धक, आश्चर्यजनक मानते हैं। इसलिए प्रदर्शनकारी जहाँ-तहाँ समाधि लगाने का कौतुक करते हैं। उस कौतूहल से प्रभावित भावुक भक्तजनों की उत्पन्न कौतुक मिश्रित श्रद्धा का दोहन यह प्रदर्शनकारी करते हैं। चढ़ावे के रूप में धन, सम्मान प्रचुर मात्रा में अर्जित करते हैं।

समाधि के बारे में उत्सुक लोगों को जानना चाहिए कि वह पके फल के बीच में निकलने वाला ऐसा बीज है जिसमें नया पौधा उत्पन्न करने की क्षमता विकसित हो चुकी होती है। उस स्थिति तक पहुँचने के लिए इससे पहले वाली सीढ़ियां पार करनी होती हैं। ऊँची छत पर पहुंचने के लिए एक-एक सीढ़ी पार करते हुए चढ़ना और पहुंचना पड़ता है ऐसा नहीं हो सकता कि जमीन पर खड़ा व्यक्ति छलांग लगाकर सीधा छत पर जा बैठे। स्कूल में प्रवेश करते ही एम.ए. की डिग्री हस्तगत हो जाय, ऐसा नहीं हो सकता है। इसके लिए एक-एक दर्जा पास करते हुए कालेज में भर्ती होना होता है और अन्त में स्नातकोत्तर परीक्षा पास करके कालेज छोड़ना पड़ता है। कालेज छोड़ने का तात्पर्य है कि स्थूल शरीर के बंधन ढीले करते हुए अपने अधिकाँश महत्वपूर्ण कार्य सूक्ष्म और कारण शरीरों द्वारा सम्पन्न करने लगना। इसमें योगी की सत्ता तो यथावत् बनी रहती है, किन्तु वह सामान्य शरीर धारण की तरह दृष्टिगोचर नहीं होती। उसे आहार-निद्रा आदि की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। सूक्ष्म और कारण शरीर वायुभूत होते हैं। उन्हें वे आवश्यकताएँ नहीं पड़ती जिन पर स्थूल शरीर का निर्वाह होता है। इस स्थिति का ही नाम जीवन मुक्ति है। उसमें स्थूल शरीर की आवश्यकताएँ एवं समस्याएँ भर निवृत्त हो जाती हैं। जीवन प्रवाह यथावत बना रहता है। वरन् सच तो यह है कि वह और भी अधिक तीव्र हो जाता है। शरीर का बोझिल झंझट अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए जो साधन सामग्री माँगता है उसकी आवश्यकता न रहने पर आत्मिक शरीर की गति, किसी भी दिशा में तीव्र हो जाती है। शरीरगत बोझ, दायित्व और संवेदन घट जाने के कारण यह स्वाभाविक भी है।

सिद्ध योगीजन प्रायः सूक्ष्म शरीर में रहते हैं। स्थूल शरीर को तो पीछे छोड़ देते हैं, या समय पर काम लाने के लिए उसे हिमि प्रदेश में जमा देते हैं। वैसे सूक्ष्म शरीर को भी संकल्प शक्ति के आधार पर प्रकट रूप में दर्शाया जा सकता है। जैसे प्रेत, पितर योनि वाले प्राणी सूक्ष्म शरीर धारी होते हैं पर कभी-कभी आवश्यकतानुसार प्रकट भी होते रहते हैं। उसी प्रकार जीवन मुक्त सूक्ष्म शरीरधारी योगीजन भी आवश्यकतानुसार दृश्य या अदृश्य होते रहते हैं। अणिमा, महिमा, लघिमा आदि सिद्धियां इसी की स्वाभाविक स्थिति हैं। सूक्ष्म शरीर हल्का होता है। उसे कितना ही सिकोड़ा या फैलाया जा सकता है। हनुमत् लीलाओं के संबंध में ऐसे विवरण आते भी हैं एक स्थान पर लिखा है- “तब कपि भयऊ भूधरा कारा” एक स्थान पर आता है- “मशक समान रूप कपिधारी” वायु वेग से चलकर संजीवनी बूटी लाना भी उसी स्थिति के विभिन्न प्रयोग हैं। पर यह स्थिति तब आती है जब राजयोग की आठों कक्षाएँ पढ़कर उनमें निष्णात् बना जाता है।

राजयोग के प्रथम दो चरण हैं- यम और नियम। यह पाँच-पाँच प्रकार के हैं। इन्हें आत्मशोधन कह सकते हैं। शरीर और मन की पवित्रता, शालीनता एवं अनुशासन अपनाना भी। शरीर संयम से चरित्र गठन होता है और चिन्तन की पवित्रता से दृष्टिकोण का परिमार्जन। संयमशीलता का यथा विधि परिपालन। इतना किये बिना गाड़ी नहीं बढ़ती। उसका ढाँचा कितना ही सुन्दर क्यों न हो पर दो पहिए तो सही स्थिति में रहने ही चाहिए।

दूसरा द्विविधि चरण है- आसन-प्राणायाम का। उसे कायगत स्वास्थ्य संतुलन कहा जा सकता है। आसनों को मर्मस्थलीय व्यायाम कह सकते हैं। पहलवानों द्वारा प्रयोग में आने वाले व्यायाम प्रधानतया माँसपेशियों के होते हैं, पर योगाभ्यास में प्रयुक्त होने वाले आसन ‘एक्यूप्रेशर’ विधान है। चीनी उपचार पद्धति में एक्यूपंचर और एक्यूप्रेशर विधान आदि हैं और उनमें मर्मस्थलों को छेदा या दबाया जाता है। इस विधि से वे शारीरिक और मानसिक रोगों से छुटकारा कराने में सफल होते हैं। आसनों में ऐसे ही मर्मस्थलों को उत्तेजित किया जाता है जिससे शरीर की मर्मस्थली नियमित होकर स्वास्थ्य संतुलन में सहायता करे।

प्राणायाम यों गहरी साँस लेकर फेफड़ों का व्यायाम करना- अधिक आक्सीजन प्राप्त करना मात्र मालूम देता है किन्तु उसका प्रधान लक्ष्य मानसिक संयम है। श्वासों के आरोह अवरोह में समस्वरता आ जाने पर मन स्थिर होने लगता है। ‘सोऽहम्’ साधना प्राणायाम विधा का अध्यात्म मिश्रित अगला चरण है। उससे ध्यान धारणा की पूर्व भूमिका बनती है और आत्मिक प्रगति की दिशा में और अधिक चल पड़ना संभव होता है।

प्रत्याहार और धारणा का युग्म अन्तःकरण चतुष्टय का परिमार्जन है। मन की दौड़ बंदर जैसी कुदक फुदक करते रहने की है। वह प्रधानतया अनगढ़ कल्पना करता रहता है। इसे ध्यान द्वारा एकाग्र किया जाता है और विवेक की खराद पर चढ़ा कर उसे हीरे की तरह अधिक रूपवान एवं चमकदार भी बनाता है। धारणा श्रद्धा विश्वास को कहते हैं। संदेहों, कुतर्कों का निराकरण भी। आस्था के परिपक्व होने से मन को कल्पना चित्र प्रत्यक्ष जीवन में साकार होने लगते हैं। आत्मिक प्रगति के यह बढ़ते हुए सोपान हैं। दोनों पक्ष अपने आप में प्रगति की दिशा में अग्रगामी बनाते हैं।

प्रत्याहार, धारणा और ध्यान से पूर्ववर्ती स्थिति है। पर है वह समाधि की तरह एकाकी। उसमें निरोध प्रधान है। मन का स्वभाव चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते रहने पर सभी के ऐसे स्वभाव संग्रह कर लेता है जो मानवी मान मर्यादा के अनुरूप नहीं पड़ते। इनकी काट करनी पड़ती है। लोहे से लोहा काटते हैं। सद्विचारों से कुविचार काटे जाते हैं। इसके लिए स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन और मनन यह चार संस्कार मन पर रगड़ाई करने एवं कलई चढ़ाने के काम में लाये जाते हैं। प्रत्याहार वस्तुतः अवाँछनीयता विरोधी है, जिसके लिए सद्विचारों का सत्प्रवृत्तियों का- नीति मर्यादाओं का- अवगाहन करना पड़ता है।

उपरोक्त सातों पक्षों को पूरा कर लेने के उपरान्त राजयोग की अंतिम भूमिका समाधि में प्रवेश करने का अवसर आता है।

समाधि दो प्रकार की होती है- एक सविकल्प दूसरी निर्विकल्प। सविकल्प में जीवनचर्या के समस्त क्रिया कलाप अपने ढंग से यथा समय होते रहते हैं। मात्र दृष्टिकोण अपने संबंध में और साँसारिक वस्तुओं के संबंध में परिमार्जित करना पड़ता है। वायुयान पर चढ़कर नीचे देखने पर सभी वस्तुएँ छोटी लगती हैं। साथ ही आकाश का बड़ा भाग भी दीख पड़ता है। यही मनःस्थिति सविकल्प समाधि में होती है। अपना अस्तित्व आकाश की तरह विस्तृत और साँसारिक लोभ, मोह, अहंकार की क्षुद्रता का भान होता है। ऐसे व्यक्ति प्रज्ञावान या मनीषी कहे जाते हैं। उनकी जीवनचर्या देवोपम हो जाती है। गुण, कर्म, स्वभाव की शालीनता का परिष्कार उनके साथ-साथ चलता है। वे अकेले नहीं होते। दैवी विभूतियाँ, विशेषताएँ एवं क्षमताएँ उनके साथ होती हैं। उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का अवलम्बन उनके साथ पूरी तरह जुड़ा रहता है। यही मध्यम मार्ग है जिसे बुद्ध ने कठोर तपश्चर्या छोड़कर अपनाया था। इसी के बारे में कबीर ने कहा है- “साधो सहज समाधि भली।

इसके अतिरिक्त दूसरी समाधि है- निर्विकल्प। इसका हठयोग एवं लययोग के साथ संबंध जुड़ता है। हृदय की धड़कन श्वास-प्रश्वास क्रिया को रोक देने पर शरीर जीवित रहते हुए निश्चेष्ट हो जाता है। उसे किसी गड्ढे में या कमरे में देर तक सुरक्षित रखा जा सकता है।

अभ्यास करने पर इस साधना की सिद्धि तो हो जाती है, पर यदि प्राण को ऊपर से नीचे उतारना न बन पड़ा और धड़कन फिर से तेज न हो सकी तो उस मध्यवर्ती व्यवधान की अवाँछनीय प्रतिक्रिया भी हो सकती है। पक्षाघात उन्माद जैसा कोई रोग भी हो सकता है। निर्विकल्प समाधि की आवश्यकता इसलिए समझी गई है कि नियत समय तक स्थूल शरीर को निश्चेष्ट करके अचेतन मन को इष्टदेव में या किसी महान प्रयोजन में नियोजित किया जा सके। इतने भर काम के लिए इतना बड़ा झंझट मोल लेना जोखिम भरा है। यह कार्य तो प्रत्याहार, धारणा, ध्यान को परिपक्व करने से भी हो सकता है। जिन दिनों शरीर शुद्ध और सात्विक थे, उन दिनों यह सरल भी था और संभव भी। पर आज के जन साधारण की सामान्य स्थिति को देखते हुए निर्विकल्प समाधि का अभ्यास या प्रदर्शन जोखिम भरा ही है उसका विचार छोड़ दिया जाय तो ही अच्छा है। जो कार्य राजयोग के तीन अभ्यासों से हो सकता है, उसके लिए इतनी लम्बी छलाँग क्यों लगाई जाय?

यह युग बाजीगरी का है। इसमें ऋद्धि सिद्धियों के अनेक उपचार अनेक बाजीगर-जादूगर कर दिखाते हैं और लोगों को हैरत में डालते हैं। अब थोड़ा-सा क्रियाकुशल व्यक्ति जादूगरी के उन हथकंडों को सीख सकता है जो दर्शकों को किसी देवी देवताओं का यत्र-तंत्र की करामात दीखें। इस संदर्भ में समाधि का तमाशा दिखाने में भी कई लोगों ने प्रवीणता प्राप्त कर ली है और वे उस प्रदर्शन का लाभ जादूगरों की तरह कमाई करने के लिए दिखाते हैं। खोदे हुए बड़े गड्ढे के यदि चारों ओर की ऊपर की जमीन पुलपुली रखी जाय तो कणों के बीच इतनी हवा रह जाती है जिसके सहारे कोई स्थिर मन वाला सप्ताह दो सप्ताह भी आक्सीजन की आवश्यकता पूरी करता रहे और लोगों को अपनी विद्या का करतब दिखा सके।

जहाँ तक आध्यात्मिक प्रगति का संबंध है वहाँ तक राजयोग के युग्मों को पार करते हुए अपने व्यक्तित्व का सर्वतोमुखी परिष्कार करना ही उपयुक्त है। समाधि स्तर तक पहुँचना हो तो सविकल्प समाधि का ही अभ्यास और अवगाहन करना चाहिए। वह सरल भी है और समुचित परिणाम में श्रेयस्कर भी।


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