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November 1986

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सदा मृत्यु का स्मरण रहे तो दुष्कर्म बन भी न पड़ें। चक्रवर्ती भरत निरन्तर जन समुदाय में घिरे रहते थे। उन्हें भय हुआ कि कहीं इस मेले में अपने को ही न भूल बैठूँ। प्रातः आशीर्वचनों की ध्वनि बजाकर जगाने वाले बादकों को बुलाकर उसने कहा- कल से यह ध्वनि बजाया करो वर्धते भंय-वर्धते भयम् अर्थात्- भय बढ़ रहा है। खतरे को ध्यान में रखो और जागो।

मूल इकाई अपनी आत्मा है। उसके गुण, कर्म, स्वभाव जैसे भी होते हैं दूसरे समीपवर्तियों के साथ टकराते और तद्नुरूप प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं। हमारे चारों ओर द्वेष, विग्रह और आक्रोश से घिरा वातावरण तभी हो सकता है जब उन दुष्प्रवृत्तियों को अपने भीतर उगाकर दूसरों पर आरोपित करें।

सज्जनता और सद्व्यवहार-परायण, सेवाभाव, सहृदय लोगों की भी कमी नहीं, पर अपना संबंध उनके साथ तभी जुड़ता है जब वैसी ही प्रकृति अपनी हो। संसार हमारी ही प्रतिध्वनि और प्रतिच्छाया है।


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