दरारें पड़ने और बढ़ने न पायें

November 1986

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हमारी पृथ्वी अपनी धुरी पर भी घूमती है और कक्षा में भी भ्रमण करती है। यह गतिशीलता ऐसी है जो मनुष्य अपने क्रिया-कलाप करते हुए उसे सहज अनुभव नहीं कर सकता। जो प्रतीत होता है वह उलटा समझ में आता है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है, पर प्रतीत ऐसा होता है मानो सूर्य ही 24 घंटे में पृथ्वी की एक परिक्रमा कर लेता है। सर्दी-गर्मी पृथ्वी के सूर्य के समीप पहुँचने और दूर हटने के कारण आती हैं। पर हमें वास्तविक कारण का पता नहीं चलता। उसे एक परम्परा भर मान लेते हैं। तारों के चलते दीख पड़ने और उदय अस्त दीखने में पृथ्वी की स्थिति बदलती रहना ही मुख्य कारण है जब कि प्रतीत यह होता है कि तारामण्डल ही भ्रमणशील है।

पृथ्वी की चाल पूर्ण गोलाई में नहीं है। उसकी कक्षा अण्डाकार है। वह लट्टू की तरह लहराती हुई भी चलती है। मनुष्य का छोटापन और पृथ्वी की विशालता ऐसा संयोग बना देती है कि मनुष्य को धरित्री की यह भगदड़ सहज समझ में नहीं आती। लहराते चलने का अनुभव कर सकना तो और भी कठिन है।

मनुष्य का मस्तिष्क अनुभव न कर सके, इसका तात्पर्य यह तो नहीं होता है कि जो घटित हो रहा है, उसकी मान्यता से इन्कार किया जा सके। पृथ्वी स्थिर प्रतीत होती है, पर विज्ञान की दृष्टि से उसकी चलन शीलता सुनिश्चित ही मानी जायगी। गुरुत्वाकर्षण शक्ति पृथ्वी की महती क्षमता है, पर उसका प्रत्यक्ष अनुभव हम कहाँ कर पाते हैं?

इस प्रकार का एक रहस्य यह भी है कि भूखण्ड इस हलचल से प्रभावित होते हैं। पर उसकी गति इतनी धीमी होती है कि उसे हाथों-हाथ नहीं समझा जा सकता। प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता।

पहाड़ उठते और धँसकते रहते हैं। उनका आकार भी विस्तृत होता और सिकुड़ता रहता है। ढलान में अन्तर पड़ने से चट्टानें टूटती रहती हैं। कोई जल स्रोत पृथ्वी गोलक के मध्य से प्रज्ज्वलित अग्नि तक जा पहुँचने पर भाप बनती है उसके फटने से भूकम्प आते तथा ज्वालामुखी फूटते हैं। इतना ही नहीं पृथ्वी फूलती सिकुड़ती भी रहती है उसकी व्यास परिधि न्यूनाधिक होती रहती है।

चिर पुरातन काल में पृथ्वी के दो विभाग थे- एक नीचा, दूसरा ऊँचा। नीचे भाग में पानी भरा था। ऊँचे में सूखी भूमि थी, जिस पर मनुष्यों समेत अन्य जीवधारी भी रहते थे। हरीतिमा भी इसी भाग में थी। स्वभावतः कालान्तर में थल भाग में दरारें पड़ीं और वे आगे की ओर खिसकने लगे। खाली जगह में समुद्र भरने लगा और उसका वेग भूखण्ड के खिसकने में और भी तेजी लाने लगा। पृथ्वी के वर्तमान नक्शे में हम कई समुद्र देखते हैं और कई महाद्वीप। यह बिखराव और विलगाव उन दरारों ने पैदा किया जो भीतरी अव्यवस्था के करण उत्पन्न हुई थीं।

यह प्रक्रिया अभी भी चल रही है। पुरातन काल में खिसकते हुए भूखण्ड जब जड़ें खोखली हो जाने के कारण खिसकने में तीव्रता अपनाने लगे हैं तो पीछे से समुद्र ने भी उन्हें रौंदा है फलतः भूखण्डों में टकराव होता रहा है। उनकी नोकें एक दूसरे के नीचे घुसती या ऊपर चढ़ती रही हैं। इस टकराव से पहाड़ उभरे या बिखराव से नये द्वीप प्रकट हुए हैं। कहा नहीं जा सकता कि पृथ्वी की आन्तरिक गतिशीलता न जाने वर्तमान भू-खण्डों का क्या से क्या स्वरूप बनाकर रख दे। यह दरार पड़ने की लीला और प्रतिक्रिया है।

मनुष्य समुदाय भी धरातल की तरह कभी एक था। वर्गों, वर्णों, जातियों, सम्प्रदायों ने उसे विभक्त किया और टकराव पैदा किया है। विषमता और बिखराव की स्थिति ही यह दरारें उत्पन्न करती हैं। इसी से परिवार और समुदाय विसंगठित होते और टूटते, बिखरते देखे जाते हैं। अच्छा हो दरारों से सावधान रहा जाय और जब भी वे आरम्भ हों तभी उन्हें भर दिया जाय।


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