मनुष्य मात्र एक कोरा कागज है।

November 1986

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फिलीपाइन्स के एक कबाइली इलाके में ऐसे परिवार पाये गये हैं, जिन्हें आदिम सभ्यता का अवशेष समझा जा सकता है। वे पत्तों से वस्त्र का काम लेते हैं और वनस्पतियों तथा जन्तुओं को आहार बनाते हैं। वे घुमन्तू स्तर के हैं। जब तक मर्जी होती है पर्वतीय गुफाओं में या पेड़ों के झुरमुटों में बस जाते हैं और जब उचंग आती है, इच्छानुसार किसी भी दिशा में चल पड़ते हैं।

किन्तु रहते कबाइली सीमा में ही हैं। सभ्य मनुष्यों के संपर्क में लाने के लिए अब तक के किये गये सभी प्रयत्न निष्फल हुए हैं। उन्हें अपना ढर्रा ही पसन्द है। बदलने की अपेक्षा जान देना लेना उन्हें अधिक पसन्द है। समुदाय में नरों की संख्या अधिक है, नारियों की कम। क्योंकि वे प्रजनन तथा कष्ट साध्य जीवन को वहन करने में पिछड़ जाते हैं।

इस खोज से पता चलता है कि यदि मनुष्य को सभ्यता, सुसंस्कारिता का वातावरण न मिले, तो वह आदिम काल की पशु परिस्थितियों में ही बना रहेगा।

ऐसे और भी कबीले संसार के अन्यान्य स्थानों में हैं, जिनके रहन-सहन, आचार-व्यवहार सामान्य लोगों की तुलना में कहीं अधिक पिछड़ा हुआ है। वे पशुओं से कुछ ही ऊँचे दर्जे तक पहुँच पाते हैं।

यह सोचना गलत है कि मनुष्य जन्मजात रूप से अनेक विशेषताएँ लेकर साथ आता है। साथ तो मनुष्य की संरचना ही अपवाद रूप मान लेना पर्याप्त है। ऐसे हाथ किसी को नहीं मिले। दो पैरों के सहारे चलना भी किसी को नहीं आता और मस्तिष्कीय ग्रहणशीलता का- संवेदना का उपहार और किसी प्राणी को नहीं मिला। किन्तु साथ ही निश्चित है कि इनका अद्भुत उपयोग सिखाने पर ही सीखा जा सकता है। इसलिए विकास की दिशा में अग्रसर करने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि उसे समुचित प्रशिक्षण प्राप्त हो, भले ही वह अभिभावकों, कुटुम्बियों, सम्बन्धियों या पड़ौसियों द्वारा दिया जाय। मनुष्य दूसरों को देखकर उसकी नकल बनाने में प्रवीण है, जबकि दूसरे प्राणी वैसा नहीं कर पाते।

ऐसे उदाहरण संसार में कितने ही हैं कि भेड़िया या चिम्पेंजियों द्वारा मनुष्य बालकों का अपहरण किया गया। उनने उन्हें मारा नहीं, वरन् अपना बच्चा समझकर पाल लिया। बड़े होने पर वे शिकारियों द्वारा प्रयत्नपूर्वक पकड़े गये। पाया गया कि उनमें अपने पालकों की सभी आदतें अभ्यास में उतर गयी हैं। वे उसी प्रकार रहते, खाते और बोलते, जैसे कि उनके पालने वाले। पकड़े जाने के उपरान्त उन्हें मनुष्योचित रहन-सहन एवं शिष्टाचार, उच्चारण सिखाने का बहुत प्रयत्न किया गया, पर इसमें आँशिक सफलता ही मिली। परिपूर्ण मनुष्य वे न बन सके। कारण कि बालक जन्म के उपरान्त आरम्भिक तीन वर्षों में जो सीख लेता है, वह इतना अधिक होता है कि जिसकी तुलना जीवन के शेष भागों में सम्पादित किये गये अनुभव से नहीं हो सकती। मानसिक बीजाँकुर इसी अवधि में उगते और बढ़ते हैं। पूर्णता-परिपक्वता शेष जीवन में आती है।

इस वास्तविकता को देखते हुए आवश्यक हो जाता है कि बच्चों के लिए भोजन-वस्त्र का ही प्रबन्ध न किया जाय, वरन् उनमें उन संस्कारों के बीजारोपण का भी प्रबन्ध किया जाय। जिससे वे समझदार, बुद्धिमान और नीतिवान नागरिक बन सकें।


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