भगवान बुद्ध जब मरने लगे तो रोते हुए अपने प्रिय शिष्य आनन्द को दुलारते हुए उन्होंने कहा, ‘आनन्द, रोओ मत, यह रोने का अवसर नहीं है। स्वयं अपने लिये दीपक बनो। निर्वाण तो नितान्त स्वाभाविक है। उसके लिये तो पहले से ही तैयार रहना है।’ बिल्सन ने मृत्यु की बेला में मुस्कराते हुए किसी अज्ञात से कहा, ‘मैं तो बिलकुल तैयार हूँ और उन्होंने आँखें मूँद लीं। वाल्टेयर ने उपस्थित लोगों से मरते समय कहा, आप लोग, गड़बड़ न करें, शान्ति से मरने दें। बेटे ने भरण की उपस्थिति को प्रकाश के रूप में देखा और वे बड़े उत्साह से चिल्लाये प्रकाश-प्रकाश, अनन्त प्रकाश। इतनी अनुभूति व्यक्त करते उनकी वाणी मौन हो गई। स्वामी दयानन्द ने सन्तोष भरी लम्बी साँस खींची और कहा, ‘हे! दयामय तेरी इच्छा पूर्ण हो।’ गाँधी जी के मुख से अन्तिम शब्द निकला, ‘हे राम’ और वे राम में ही समा गये।