एक ही काया में दो व्यक्तित्व

November 1986

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एक ही व्यक्ति जब एक ही जीवन या समय में परस्पर विरोधी काम करता है या गिरगिट की तरह कई बाने बदलता है, तो उसे मनोविज्ञान की भाषा में खंडित व्यक्तित्व अथवा कई व्यक्तित्वों का मनुष्य कहा जाता है। एक ही शरीर में जब अधिक अंग-अवयव निकल पड़ते हैं तो उससे कुरूपता बढ़ती है और असुविधा भी होती है। जैसे पेट में रसौली, पैर में गठिया, चेहरे पर मुंहासे या मस्सा निकल पड़ने पर उसे अहितकर ही गिना जाता है और शल्यक्रिया द्वारा निकलवा देने का प्रयत्न किया जाता है। इसी प्रकार दुहरा व्यक्तित्व मनुष्य को उपहासास्पद बनाता है और सोचा जाता है कि एक ही व्यक्तित्व होता तो उसका वास्तविक स्वरूप समझने तथा उसके सम्बन्ध में भला-बुरा मत बनाने में सुविधा होती।

जो व्यक्ति वक्ता के रूप में मंच पर बैठकर आदर्शवादिता की दुहाई देता है, धर्मोपदेशक या देशभक्त बनता है; किन्तु जब आचरण का प्रसंग आता है तो उस कथन के विपरीत आचरण करता है, तो आश्चर्य होता है कि यह परस्पर विरोधी व्यवहार किस प्रकार बन पड़ता है। क्षण भर पूर्व जिन बातों का तर्क, तथ्य, उदाहरण, प्रमाण प्रस्तुत करते हुए अपने निजी अनुभव और विश्वास को साक्षी देते हुए कहा जा रहा था, उसे इतनी जल्दी कैसे भुला दिया गया। उसके विपरीत आचरण करने के लिए कैसे हाथ उठा और कैसे कदम बढ़ा? अपने आप को ठगने एवं झुठलाने का प्रयास कैसे चल पड़ा?

दूसरों को ठगने का प्रयास करना वस्तुतः अपनी आत्मा के साथ ही छल करना है। दूसरों को बहकाया जा सकता है। उसे भ्रम में डाला जा सकता है। पर अपने आपे के सम्मुख तो असली चेहरा ही रहेगा। कथनी और करनी का अन्तर स्वयं को तो विदित रहेगा ही। इसे अपने को ठगना या झुठलाना ही कहा जायगा। दूसरे लोग तो ठगी में आ भी सकते हैं और बहकावा कारगर हो भी सकता है; पर अपनी आत्मा के दरबार में दोषी और निर्दोष का दुहरा रोल कैसे अदा किया जा सकता है। अपनी यह चतुरता या धूर्त्तता अपने सामने तो नंगे रूप में ही खड़ी रहेगी। तब दूसरा कोई गलती से सम्मान भी कर ले, प्रशंसा भरे शब्द भी कह दे; किन्तु अन्तःकरण तो इस तो इस फरेब के लिए सदा धिक्कारता ही रहेगा।

इस धिक्कारणा का बढ़ा हुआ स्वरूप आत्म प्रताड़ना है। जिससे किसी का हर्ज या पतन नहीं होता- ऐसे वाक-विनोद, व्यंग-उपहास श्रेणी के समझे और मनोरंजन गिने जा सकते हैं। किन्तु वे आचरण जो नीतिवानों द्वारा अनीति स्तर पर किये जाते हैं, वस्तुतः छद्म हैं। उस पाखंड में अपना और पराया अहित ही होता है।

एक शरीर में एक ही दिल, पेट, मस्तिष्क हो सकता है। वे दुहरे हों तो इससे शान्ति नहीं बढ़ेगी, सौभाग्य नहीं समझा जायगा, वरन् कौतुक समझा और कुरूपता-असुविधा का निमित्त कारण माना जायगा। एक म्यान में दो तलवारें नहीं ठूँसी जा सकती। एक शरीर में दो व्यक्तित्व नहीं रह सकते हैं। कभी-कभी किसी पर भूत-प्रेत आवेश आ जाता है, तो उसकी कायिक और मानसिक स्थिति विलक्षण हो जाती है। जो करता है, कहता है वह सब अटपटा ही होता है। यह बात दुहरे व्यक्तित्व के सम्बन्ध में भी समझी जा सकती है।

सत्य और असत्य परस्पर एक-दूसरे के विरोधी-प्रतिद्वंद्वी हैं। एक ही कोंत्तर में साँप चूहे का निवास कैसे हो दोनों की दिशा भिन्न होना ही आश्चर्यजनक नहीं है, वरन् प्रतिद्वंद्वी की तरह जब वे एक-दूसरे से विग्रह खड़ा करते हैं, तो उसका प्रतिफल मल्ल युद्ध की तरह सामने आता है। हल के दो बैल यदि आपस में लड़ने लगें, तो मालिक का नुकसान तो होगा ही, परस्पर भी एक दूसरे को घायल कर देंगे।

व्यक्तित्व जैसा भी भला-बुरा हो भीतर और बाहर एक जैसा रहना चाहिए। सती-साध्वी बनने वाली और अपने को इसी रूप में प्रख्यात करने वाली महिला को कुलटा नहीं होना चाहिए। वेश्या की बात दूसरी है, वह जिस प्रकार का आचरण व्यवसाय करती है, उसे प्रकट भी कर देती है। बहरूपिये तमाशा दिखाते समय कई तरह के वेष बनाते हैं; पर अपने परिवार पड़ौस में वे अपने बारे में कोई गलत कुछ भी वैसा नहीं करते हैं। पूछताछ करने पर वे अपना व्यवसाय स्पष्ट रूप से “बहरूपिया” लिखते हैं।

एक गाड़ी पर मनुष्य तो कई बैठ सकते हैं; किन्तु भेड़िये और खरगोश दो एक साथ एक गाड़ी में नहीं बैठ सकते। आक्रमण होगा और अशान्ति पनपेगी। प्रकृति विरुद्ध स्थिति के रहने पर एक साथ रहने का तालमेल नहीं बनता। समझौता भी नहीं होता। अशान्ति और आशंका पनपती है।

आत्मा का स्वरूप सौम्य और सरल है। उसे यथार्थता ही ग्राह्य है। बात मन में हो वही कही जानी चाहिए और जो कहा जाय वही करना चाहिए। मन, वचन, कर्म में अन्तर रहने पर मनुष्य कपटी रहता है। कपट उस चिनगारी के समान है, जो जहाँ सुलगाई जाती है, पहले उसी को जलाती है। ज्वाला बनकर फूटने और दूसरों के घरों को जला डालने का काम तो इसके पश्चात् होता है। चमड़ी में काँटा चुभ जाने पर दर्द होने लगता है। दूध में नीबू निचोड़ देने से वह फट जाता है। प्रकृति भिन्नता में विसंगतियाँ ही पैदा होती हैं।

मनुष्य मानवी गरिमा का धनी है। उसमें सद्गुणों, सत्कर्मों, सद्स्वभावों और सत्प्रवृत्तियों का ही गुजारा है। ईश्वर का ज्येष्ठ पुत्र युवराज अपने पिता से आदर्शवादी श्रेष्ठताएँ साथ लेकर जन्मा है। उसका जीवन प्रवाह इसी दिशा में बहना चाहिए। उसके क्रियाकृत्य इसी स्तर के होने चाहिए। उसे अपनी गरिमा, सज्जनता और शालीनता के रूप में ही बनाये रहनी चाहिए। इसी में उसे आत्मसन्तोष मिल सकता है और लोक-सम्मान भी। हो सकता है कि ऐसा व्यक्ति बड़ा आदमी न कहला सके, पर उसकी सज्जनता और सरलता हर स्थिति में सराही जायगी। वे सुसम्पन्न किस काम के, जिनके पास कुबेर जितना वैभव तो जमा है; किन्तु वस्तुस्थिति जानने वाले उसे छली और पाखण्डी ठहराते हैं।

दुहरे व्यक्तित्व की स्थिति ऐसी ही होती है जो एक क्षण शूरवीर बनकर तलवार घुमाता है और दूसरे ही क्षण जनाने कपड़े पहनकर तालियाँ बजाने और नाचने लगता है। ऐसे व्यक्ति का किसी भी क्षेत्र में भरोसा नहीं किया जाता और न उसे कोई उत्तरदायित्व सौंपा जाता है।

दुहरा, दुरंगा, दोगला व्यक्तित्व बनाने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है कि मनुष्य अनगढ़, अशिक्षित, दरिद्र यहाँ तक कि चोर के रूप में जाना जाय। उसकी आत्मा उसे नहीं धिक्कारेगी। योग्यता और क्षमता के अभाव में उसे तुच्छ या सामान्य रहना पड़ा; किन्तु उसने अपने को छिपाया तो नहीं। कपट दुनिया में बुरे किस्म का अपराध है। इसकी अपेक्षा तो अयोग्य बनना और तिरस्कृत स्थिति में रहना भला।

दुहरा, दुरंगा, दोगला व्यक्तित्व बनाने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है कि मनुष्य अनगढ़, अशिक्षित, दरिद्र यहाँ तक कि चोर के रूप में जाना जाय। उसकी आत्मा उसे नहीं धिक्कारेगी। योग्यता और क्षमता के अभाव में उसे तुच्छ या सामान्य रहना पड़ा; किन्तु किस्म का अपराध है। इसकी अपेक्षा तो अयोग्य बनना और तिरस्कृतम स्थिति में रहना भला।


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