वेदान्त दर्शन का सार तत्व

November 1986

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प्रसिद्ध षट्दर्शनों के अतिरिक्त भी पूर्वात्य और पाश्चात्य अनेक दर्शन हैं। उनमें वेदान्त दर्शन की गरिमा सर्वोच्च मानी गयी है। उस मान्यता के अनुरूप विचारणा को परिष्कृत करने और जीवन ढालने पर मनुष्य ऐसा दृष्टिकोण अपना सकता है, जो उसके निज के लिए उत्साहवर्धक, प्रसन्नतादायक सिद्ध हो और दूसरों को सुविधा उत्पन्न करे तथा प्रगति का द्वार खोले।

वेदांत की व्याख्या सुविस्तृत है; किन्तु उसके सारतत्त्व दो ही हैं- एक अपने अन्तराल में परब्रह्म की उपस्थिति अवस्थित देखना और संसार को खेल जैसी क्रीड़ास्थली मानना, उसमें घटित होने वाली घटनाओं से अधिक प्रभावित न होना।

वेदान्त की आरंभिक शिक्षा है- “अयमात्मा ब्रह्म”- “तत्वमसि”- “सोऽहम्” आदि। अपनी जीवन सत्ता परमात्म स्वरूप है, सत्-चित्त-आनंद स्वरूप, अविनाशी और सुसंस्कारी। मैल तो उस पर दुर्गुणों और दुर्जनों के संपर्क से ही जमते हैं। यह ऐसे ही हैं, जैसे कपड़े मैले हो जाते हैं, शरीर पर मलीनता जम जाती है। यह ऐसी नहीं होती, जिन्हें छुड़ाया न जा सके। कपड़े को साबुन से धो देते हैं, शरीर को तौलिये से रगड़ देते हैं, कमरे को बुहारी से बुहार देते हैं। इस संसार की प्रकृति ही ऐसी है कि हवा के साथ उड़ने वाली धूलि जहाँ भी रुकने का स्थान पाती है, वहाँ मलीनता जमा कर देती है। वातावरण में सदाशयता कम और दोष-दुर्गुणों का बाहुल्य है। अस्तु संपर्क क्षेत्र का प्रभाव पड़े बिना रहता नहीं। जो चारों ओर दीखता है, उसके अनुकरण की इच्छा होती है। पानी नीचे की ओर बहता है, यह उसका स्वभाव है। मन का स्वभाव भी ऐसा ही है कि वह अपनी समीपवर्ती अवाँछनीयताओं को ही लपक कर अपनाता है। जो श्रेष्ठ है, वह उसकी ओर से आँखें मीचे रहता है। इस स्थिति को समझते हुए आत्म स्वरूप की पवित्रता और गुण-कर्म-स्वभाव की निकृष्टता का विश्लेषण करना चाहिए और जो विजातीय-अवांछनीय अपने से लिपट गया है, उसे छुड़ाना चाहिए।

यह प्रेरणा वेदान्त दर्शन से मिलती है। वह अपने आप को हेय प्राणी नहीं गिनता। मूल सत्ता की उत्कृष्टता पर विश्वास करता है। उसकी गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रहने के लिये यह प्रयत्न करता है कि चादर मैली न होने पाये। अच्छे खासे सुन्दर शरीर और सुसज्जित परिधान पर दाग-धब्बे न लगने पायें। श्रेष्ठजनों को अपनी श्रेष्ठता का ध्यान रहता है। इस हेतु वे निरन्तर यह प्रयत्न करते हैं कि उनका आवरण-आचरण ऐसा न बनने पाये, जिससे उनकी निकृष्टता परिलक्षित हो, घृणास्पद बनें और लोग उँगली उठायें, अन्तःकरण धिक्कारे, सज्जनों के बीच लज्जित होना पड़े।

जिस दर्शन में आत्मा को जन्मजात रूप से पापी स्वभाव का माना गया है, पशु प्रवृत्तियों से गुँथा हुआ भी, उस विचारणा से सहमत लोग इतना ही सोच पाते हैं कि जैसा कुछ बनाया गया है, वैसे हैं। जब अन्य जीव-जन्तुओं को मर्यादा पालन और वर्जनाओं से बचने का भाव पैदा नहीं होता, तो हमीं क्यों पवित्रता एवं प्रखरता अर्जित करने के लिए कष्ट सहें, क्यों उनसे जूझे और क्यों तपस्वी स्तर के अनुबन्ध अपने ऊपर लगायें। उन्हें मलीनताओं के बीच निवास-निर्वाह करते हुए भी ऐसी व्याकुलता नहीं होती कि दुष्प्रवृत्तियों से पीछा छुड़ाने के लिए कटिबद्ध हुआ जाय। उनसे बचे रहने के लिए विशेष रूप से सतर्क रहा जाय। जिसकी अपनी कोई मौलिक गरिमा नहीं, उसके मन में ऐसे संशोधक विचार उठने भी क्यों चाहिए ?

परमात्मा श्रेष्ठताओं का समुच्चय है। उसे सत्, चित् और आनन्द स्वरूप माना गया है। जीवधारी जब अपने को ईश्वर या उसका अंश मानता है, तो सहज ही यह दायित्व उसके ऊपर आता है कि अपने आधार के अनुरूप ही अपनी जीवनचर्या बनाये। व्यक्तित्व में उच्चस्तरीय महानता का समावेश करें। यह प्रेरणा मनुष्य को ऊँचा उठाने और देवोपम जीवनयापन करने के लिए प्रोत्साहित बाधित करती है। इसे एक बहुत बड़ी उपलब्धि ही माना जा सकता है। आत्मबोध के रूप में जब अपने को ईश्वर- ईश्वर का अंश मानने की आस्था जागती है, तो अन्तरंग और बहिरंग जीवन में दोनों ही पक्ष फड़फड़ाने लगते हैं। पक्षी उन्मुक्त आकाश में विचरण करने लगता है।

वेदान्त का दूसरा पक्ष है- संसार को माया मानना। जो घटित हो रहा है, उसे जादू स्तर की खिलवाड़ मानना, स्वप्न में देखे हुए दृश्यों की तरह अवास्तविक मानना। खिलाड़ी, ताश-शतरंज या दूसरे खेल खेलते हैं। उनमें बार-बार हार जीत होती रहती है। इसके लिए वे न तो हर्षोन्मत्त होते हैं और न शोक मनाते हैं। जानते हैं कि यह सब क्रीड़ा-विनोद है। इस माध्यम से अपनी बौद्धिक या शारीरिक कुशलता बढ़ाने का ही लाभ लेना चाहिए, हार-जीत के परिणामों को उतना महत्व नहीं देना चाहिए।

संसार में अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ पग-पग पर आती रहती हैं। जो उनसे प्रभावित होते हैं, वे चैन से समय गुजार नहीं पाते। कभी सफलता का आवेश-उन्माद जैसा चढ़ बैठता है और कभी स्थिति ऐसी आ जाती है कि शोक, रोष, वियोग, विछोह व्याकुल कर देते हैं। चिन्ता, निराशा, आशंका से मन प्रकम्पित रहता है और यही भय बना रहता है कि न जाने कब क्या आपत्ति आसमान से टूट पड़े। वर्तमान स्थिति से भी संतोष नहीं होता। निर्वाह योग्य साधन हों, तो भी अधिक बटोरने की लिप्सा बेचैन किये रहती है। संग्रह इतना करने की इच्छा होती है कि सात पीढ़ियों तक गुलछर्रे उड़ाने की सुविधा बिना परिश्रम किये उस संचय के आधार पर ही मिलती रहे। इस लालच की जितनी पूर्ति की जाती है, वह उतनी ही अधिक तीव्र होती जाती है। रोज कमाने, रोज खाने वालों की अपेक्षा वे लोग अधिक चिन्तित पाये जाते हैं, जिनके सिर पर संग्रह, वैभव एवं प्रदर्शन का भूत चढ़ा है। हानि-लाभ के अवसर भी कम नहीं आते; उनकी सुखद और दुःखद प्रतिक्रियाएं मन में ज्वार भाटे जैसे उछाल लेती रहती हैं। ऐसी दशा में अशान्ति बनी रहना स्वाभाविक है और जो अशान्त हो उसके लिए सुख-चैन कहाँ?

मिलन और विछोह का जोड़ा है। मनुष्य जन्मते और मरते रहते हैं। सदा-सर्वदा जीवित रह सकना किसी के लिए भी संभव नहीं। जो जितनी आयुष्य लेकर आता है, उतना ही ठहरता है और समय आने पर अपनी राह चला जाता है। संसार एक रेलवे प्लेटफार्म है। इस पर मुसाफिरों का आवागमन बना ही रहता है। ज्ञानी इस तथ्य को समझते हैं और प्रिय-अप्रिय दोनों ही परिस्थितियों को अधिक महत्व नहीं देते। फलतः उनका चैन संतुलन भी गड़बड़ाने नहीं पाता। वेदान्त दर्शन हमें अनेक भ्रान्तियों और अवाँछनीयताओं से बचा लेता है।

‘ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या’ का सिद्धान्त काल्पनिक नहीं है। वह हर कसौटी पर खरा उतरता है। आत्मा जिस दिशा धारा को मजबूती से पकड़ती है उसी से देव दानव की स्थिति प्राप्त कर लेती है। उसकी मूल सत्ता परब्रह्म के साथ जुड़ी होने के कारण महानता का समुच्चय है। अवसर मिले तो मनुष्य महामानव, सिद्ध पुरुष, तपस्वी, देवता, अवतार बन सकता है। इसी प्रकार वह माया के सिद्धान्त को समझने का प्रयत्न करे तो भव बंधनों से मुक्ति पाकर हर परिस्थिति में सन्तुष्ट और उल्लसित रह सकता है।


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