ज्योतिर्विज्ञान की असंदिग्ध प्रामाणिकता

November 1986

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य की प्रकृति एवं उसके स्वभाव का गहरा सम्बन्ध ज्योतिर्विज्ञान से है। जिसके अंतर्गत पिण्ड और ब्रह्माण्ड-व्यष्टि और समष्टि- आत्मा और परमात्मा के सम्बन्धों का अध्ययन सम्मिलित रूप से किया जाता है। ग्रह, नक्षत्र, तारे, राशियाँ, मन्दाकिनियाँ, निहारिकाएं एवं मनुष्य, प्राणी, वृक्ष, चट्टानों आदि विश्वब्रह्माण्डीय घटक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एक दूसरे को प्रभावित आकर्षित करते हैं। इन ग्रह नक्षत्रों का मानव जीवन पर सम्मिलित प्रभाव पड़ता है। वे कभी कष्ट दूर करते हैं तो कभी कष्ट भी देते हैं। ये तत्व मनुष्य की सूक्ष्म संरचना एवं मनः संस्थानों पर कार्य करते हैं और उसकी भावनाओं तथा मानसिक स्थितियों को अधिक प्रभावित करते हैं। ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन और उपयोग से ज्योतिषी को मानव जीवन के सभी क्षेत्रों के बारे में गहरी अंतर्दृष्टि प्राप्त हो जाती है।

आरंभिक काल से ज्योतिर्विज्ञान अध्यात्मविज्ञान की ही एक शाखा थी। इसे एक पवित्र विद्या माना जाता था जिसका स्वरूप स्पष्टतः धर्म विज्ञान पर आधारित था। अपने इसी रूप में इसने चालडियन एवं मिस्री धर्मों तथा प्राचीन भारत, चीन एवं पश्चिमी योरोप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उस समय इसकी विश्वसनीयता असंदिग्ध मानी जाती थी और उसका प्रचार-प्रसार लगभग विश्व के समस्त भागों में था। परन्तु मध्यकाल में ज्योतिर्विज्ञान पर अनेकों आघात हुए और अल्पज्ञ तथा निहित स्वार्थी लोगों के हाथों पहुँच जाने पर इस विद्या की अवनति हुई। ज्योतिष की मूलभूत तत्व मीमाँसा एवं उसके आध्यात्मिक तत्व दर्शन से उस समय के ज्योतिषी बहुत अंशों में अनभिज्ञ थे। उन्होंने ज्योतिर्विद्या के केवल उन सिद्धान्तों पर अमल किया जिसका मेल नये याँत्रिक भौतिक विज्ञान के तथ्यों से बैठता था। उस समय केवल वही सिद्धान्त मान्य रहे जो दृश्य जगत् की बाह्य भौतिक घटनाओं एवं तथ्यों पर आधारित थे। केपलर के ज्योतिष विज्ञान को ग्रहों के चाल पर आधारित मानने के कारण भी ज्योतिष विज्ञान की दुर्गति हुई।

वास्तव में ज्योतिर्विज्ञान के सिद्धान्तों का सुदृढ़ आधार अभौतिक एवं आध्यात्मिक है। इसे भौतिक यंत्रवाद और मात्र ग्रहों, तारों, राशियों एवं भावों को निर्धारण करने वाले एवं व्यवस्था क्रम दर्शाने वाले खगोलीय विज्ञान के आधार पर नहीं समझा जा सकता। इस स्थिति से बचने के लिए समय-समय पर कुछ महान संत ज्योतिषियों ने अपने-अपने सुधार प्रयत्न भी प्रस्तुत किये। आठवीं सदी में हिन्दुओं की खगोल विद्या एवं ट्रिगनामेट्री पर लिखे गये प्रख्यात शोध ग्रंथ- “सिद्धान्तस्”, तेरहवीं शताब्दी के योरोपीय ज्योतिषी गीडी बोनाटी का लैटिन भाषा में लिखा गया ग्रंथ- “लिबर एस्ट्रोनामिया” और सत्रहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध संत ज्योतिषी जीनमोरिन की श्रेष्ठ रचना- “एस्ट्रोलाजिया गोल्लिका” में ज्योतिष का प्रतिपादन विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक एवं तात्विक सिद्धान्तों के आधार पर किया गया है। ज्योतिष विज्ञान के क्षेत्र में इन रचनाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा। आधुनिक ज्योतिर्विज्ञान इन्हीं कि देन है।

मूर्धन्य ज्योतिर्विद् राबर्ट जोलर ने अपनी पुस्तक “द लास्ट की टू प्रेडिक्सन”- (द अरेबिक पार्ट्स इन एस्ट्रालॉजी) में अरबी ज्योतिष तत्व के प्राचीनतम किन्तु अत्यन्त उपयोगी एवं महत्वपूर्ण सिद्धान्त पर प्रकाश डाला है। अरेबिक पार्ट्स से संबंधित सिद्धान्त प्राचीन काल से ही प्रचलित हैं और वे मानव जीवन के सभी क्षेत्रों पर गहराई से प्रकाश डालते हैं। इस पुस्तक में ज्योतिष के 97 मूलभूत पार्ट्स दिये गये हैं, जो प्राचीन समय में प्रयुक्त होते थे। इसके अतिरिक्त 73 अन्य पार्ट्स भी प्रस्तुत किये गये हैं जिन्हें मध्यकालीन विभिन्न स्रोतों से प्राप्त किया गया था। इस ग्रंथ की विशेषता है कि यह मनुष्य के दिव्य स्वरूप की ओर इंगित करता है और ज्योतिर्विज्ञान के माध्यम से मनुष्य के आत्मतत्व की उस महानता को उद्घाटित करता है जिसमें मान हाड़ माँस का पुतला और यंत्रवत संचालित मशीन मात्र नहीं वरन् वह इस धरती का मुकुटमणि ईश्वर का अविनाशी अंश उसका वरिष्ठ राजकुमार है। जो इस विश्व ब्रह्माण्ड में समष्टि में विद्यमान है, वही व्यष्टिगत मानवी काया में सूक्ष्म रूप में विद्यमान है। सृष्टि के कण-कण में विराजमान सृष्टा मनुष्य के पवित्र हृदय में बैठा उसे ऊर्ध्वगामी बनने के लिए सदैव प्रेरित करता रहता है।

अरेबिक पार्ट्स के अनुसार ज्योतिष की सम्पूर्ण कला जिसमें पार्ट्स की कला भी सम्मिलित है, अंक- संख्या पर आधारित है। ज्योतिर्विज्ञान को जानने के लिए सर्वप्रथम उसके कार्य कारण संबंधी ज्ञान की जानकारी होना आवश्यक है। संसार के सभी पदार्थ मूल रूप में एक ही तत्व से बाहर निकले हैं। ज्योतिष का प्रथम मूल तत्व-फर्स्ट प्रिंसिपल एक अद्वितीय चेतन सत्ता मोनेड- परमात्मा है। यह सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड का- समष्टि जीवन का आधारभूत मूल तत्व है। जिसे ही अध्यात्मवादियों- संतों ने विभिन्न नामों से पुकार है। ज्योतिर्विज्ञान का प्रथम सिद्धान्त मनुष्य को आत्म-सत्ता की महानता से परिचय कराता है, जिससे सम्पूर्ण जीव जगत की विराट् सत्ता समाविष्ट है।

“हरमेटिक सिद्धान्त” के अनुसार- जो नियम-विधि विधान सृष्टि-विश्व ब्रह्माण्ड में लागू हैं वे ही पिण्ड-व्यष्टि अर्थात् मनुष्य में भी लागू हैं। मनुष्य और सृष्टि समान नियमों से बँधी हुई हैं। अतः जेनेथियोलाजी एवं मुण्डेन एस्ट्रालॉजी- लौकिक ज्योतिष के माध्यम से पिण्ड और ब्रह्माण्ड का अध्ययन साथ-साथ किया जाता है। मनुष्य की प्रकृति एवं स्वभाव का गहरा संबंध ज्योतिर्विज्ञान से होने के कारण प्राचीन दार्शनिक ज्योतिषियों ने मानव प्रकृति समझने पर बहुत अधिक जोर दिया है। कुछ प्रमुख दार्शनिक ज्योतिषियों- हेनरी कार्नेलियस एग्रीपा, गिआरडेनो ब्रूनो, हरमेस ट्रिसमेजिस्टस एवं पिकोडेला मिरानडोलो ने अपनी-अपनी रचनाओं में मानव प्रकृति और विश्व ब्रह्माण्ड से उसके सम्बन्धों की पूर्ण विवेचना प्रस्तुत की है। इन्होंने कहा है कि मनुष्य की आत्मा एक तात्विक अंक है, जिसका प्रकटीकरण सीधे ईश्वर से होता है। मानव आत्मा एक अलौकिक दिव्य प्रकाश है। यह अविकारी, एकरस, आत्मनिर्भर, सर्वज्ञ एवं सभी शरीरों एवं भौतिक पदार्थों से परे है। यह मूल तत्व ही सही अर्थों में मनुष्य है।

दार्शनिक ज्योतिषी एग्रीपा ने अपनी रचना में बताया है कि मनुष्य का विश्व ब्रह्माण्ड और मोनेड-ईश्वर से क्या संबंध है। उन्होंने आगे कहा है कि इस जगत का केन्द्र बिन्दु ईश्वर ही है और उसी से सृष्टि का स्फुरण हुआ है। इन दार्शनिक ज्योतिषियों ने यह भी प्रतिपादित किया है कि ईश्वर विश्व ब्रह्माण्ड के केन्द्र में स्थित है। ब्रूनो, हरमेस और मिरानडोला के मतानुसार मनुष्य विश्वब्रह्मांड के मध्य में स्थित है। अतः ईश्वर और मनुष्य दोनों में समानता है, दोनों एक दूसरे के अनुरूप हैं। दोनों की अनुरूपता एवं मिलन का स्थान मनुष्य का हृदय ही हो सकता है। यही जगत का केन्द्र भी है। ईश्वर मनुष्य एवं विश्व ब्रह्माण्ड में स्वरूपतः अभिन्नता, समरूपता एवं मूलभूत एकता होने के कारण ही सभी धर्मों एवं तत्व दर्शनों में हृदय की पवित्रता-शुचिता पर बहुत जोर दिया गया है।

ज्योतिर्विदों के अनुसार मनुष्य की जन्मराशि हृदय की आकृति को चित्रित करती है। जिस तरह इसी मैक्रोकाज्म-विश्व-ब्रह्माण्ड में स्वर्ग लोक है और यह विश्वब्रह्माण्ड मनुष्य के हृदय में स्थित है। उसी प्रकार जिस मनुष्य की जन्मपत्री बनाई जाती है, उसके जन्म-पुनर्जन्म लेने के समय आकाशीय राशि उसके हृदय की प्रतिमूर्ति होती है। ये ज्योतिष की राशियां या अंक पुनर्जन्म लेने वाले मनुष्य विशेष अथवा विश्व ब्रह्माण्ड के हृदय के संकल्पों-इच्छाओं की प्रतिमूर्ति भी होती है।

खगोल विज्ञान में आकाशीय भौतिक नक्षत्रों एवं ग्रहों का अध्ययन किया जाता है जबकि ज्योतिष विज्ञान में मनुष्य के हृदय में स्थित ग्रहों एवं नक्षत्रों का अध्ययन किया जाता है। अर्थात् मानव हृदय में स्थित आन्तरिक ग्रहों एवं तारों की गति का समय सूचित करने के लिए ही भौतिक नक्षत्रों का उपयोग किया जाता है। इस तथ्य को समझे बिना ज्योतिर्विज्ञान के सिद्धान्तों को भली भाँति हृदयंगम नहीं किया जा सकता।

मानव जीवात्मा के केन्द्र हृदय का सृष्टि के केन्द्र से अनुरूपता होने के फलस्वरूप संकल्प स्थल हृदय में विविध प्रकार के विश्व ब्रह्माण्ड घटना चक्र जैसे- राजनैतिक, मौसम संबंधी, प्राकृतिक प्रकोप, जन्म क्रम में अन्तर, आध्यात्मिक धार्मिक परिवर्तन, सम्प्रदायों का उत्थान-पतन, युगपरिवर्तन आदि तथा व्यक्तिगत मानवी जीवन के घटना चक्र उदय होते रहते हैं। व्यक्ति एवं जगत में उनके उदय हो जाने पर उक्त विभिन्न इच्छाएं निर्धारित ईश्वरीय नियमों के अनुसार समय-समय पर प्रकट होती हैं। इन निर्धारित नियमों की झलक इस रूप में देखी जा सकती है किस तरह व्यवस्थित रूप में सौर मण्डल के समस्त ग्रह अपने सूर्य के तथा विश्व-ब्रह्माण्ड के सूर्य महासूर्य की परिक्रमा करते हैं। यह क्रम हिन्दुओं के कर्म सिद्धान्तों पर भी लागू होता है।

मनुष्य के शरीर के समान ही जगत का भी विराट् शरीर है। उसकी समस्त विविधताएँ एवं भिन्नताएँ मूलभूत एकत्व से ही प्रस्फुटित होती हैं तथा वे सभी अंक स्वरूप ही होती हैं। इन अंकों द्वारा सभी पदार्थों का स्वरूप एवं व्यवहार तथा कार्यविधि मापा जाता है। सृष्टि के भीतर पाया जाने वाला सामंजस्य एवं सुव्यवस्था बुनियादी रूप में संख्यापरक है इसलिए गूढ़ एवं रहस्यमय ज्योतिर्विज्ञान भी संख्या-अंक आधारित है।

प्रख्यात ज्योतिर्विद् दार्शनिक बोथियस से अपनी कृति ‘फर्स्ट नेचर आफ दी थिंग्स’ में लिखा है कि प्रथम अनादि सत्ता से जब सृष्टि के सभी पदार्थों की रचना हुई तब ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी रचना संख्या के अनुपात से की गई। वास्तविक रूप यह सृष्टा का आद्य स्वरूप ही है कि वह जगत के रूप में अपनी अभिव्यक्ति अंकों के अनुपात से करता है। सुप्रसिद्ध दार्शनिक ज्योतिषी जॉन डी ने इस संबंध में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है कि संख्या का तिगुना स्वरूप होता है- प्रथम स्वरूप सृष्टि कर्त्ता में, दूसरा सभी प्राणियों में और तीसरा देवदूतों, दिव्य आत्माओं एवं मनुष्य की आत्मा में होता है। मनुष्य की आत्मा से अंक-संख्या की इतनी अधिक घनिष्ठता एवं सजातीयता है, इसका इतना अधिक प्रभाव है कि कुछ प्राचीन दार्शनिकों ने अपना मत व्यक्त करते हुए आत्मा को अंकस्वरूप कहा है। जॉन डी के अनुसार सृष्टि के आरंभ में ईश्वरीय ज्ञान के फलस्वरूप जगत के सभी पदार्थों की उत्पत्ति सुव्यवस्थित ढंग से हुई। ग्रह, नक्षत्र, तारे, राशियाँ, मनुष्य तथा परमाणु साथ-साथ और अविभाजित रूप से एक हैं और इनकी अनुभूति एक शुद्ध पूर्ण सत्ता के रूप में ही की जा सकती है। अंकों के आदि रूप का महत्व है, जिसके अनुसार सृष्टि की रचना हुई। इसलिए अंक सृष्टि जगत की विभिन्नताओं एवं अनेकताओं को प्रकट करने का माध्यम है। जिसके निमित्त से मूल चेतन स्वरूप दिव्य प्रकाश शक्ति ग्रहों तथा राशियों के रूप में स्वयं को रूपांतरित करता है। यह अनन्त प्रकाश ही प्राण को प्रज्वलित करता है तथा प्राण को शाश्वत और अनंत सत्ता के साथ जोड़ता है। यह सारा काम एक से दस अंकों तक पूरा हो जाता है। दूसरे शब्दों में सृष्टि का सम्पूर्ण रचनाक्रम और उसका प्रकटीकरण दस चरणों में पूरा होता है। इन अंकों से यह विदित होता है कि किस प्रकार अज्ञात अव्यक्त स्रोत से मूल उद्गम अज्ञेय स्रोत में समा जाना हुआ।

यथार्थ में सृष्टि के रचना क्रम को समझाने तथा मानवी आत्म सत्ता के विराट् स्वरूप से परिचित कराने- उसकी गौरव गरिमा का बोध कराने एवं उसका सदुपयोग करने के उद्देश्य से ही ज्योतिर्विज्ञान की रचना की गई थी। परन्तु वर्तमान समय में ज्योतिष का स्वरूप ही बदल गया है। आजकल के प्रचलित फलित ज्योतिष, अंक ज्योतिष के आधार पर लोगों को उनके भविष्य बताकर, ग्रह-नक्षत्रों के बुरे प्रभाव बताकर एवं डरा धमका कर उनसे अपना उल्लू सीधा करना और उन्हें उल्टे उस्तरे से मूड़ना तथाकथित आधुनिक ज्योतिषियों का उद्देश्य रह गया है। इस माध्यम से अर्थोपार्जन करना उनका धंधा बन गया है। यह प्रचलन विशुद्ध रूप से ज्योतिर्विज्ञान का मखौल उड़ाना है। लाभ के स्थान पर इससे लोगों को अनेकों मानसिक परेशानियाँ झेलनी पड़ती हैं, गाँठ का पैसा तो कटता ही है।

वास्तव में ग्रह नक्षत्रों में या पदार्थों में कोई अच्छाई या बुराई नहीं होती। यह तो मात्र मनुष्य की अपनी आकर्षण शक्तियों के अनुसार भले-बुरे परिणाम देते हैं। दृढ़ संकल्प वाला व्यक्ति इनके कुप्रभावों से बच जाता है परन्तु कमजोर व्यक्ति इनसे पीड़ित रहता है। सफलता-असफलता और सुख-दुःख वास्तव में मनुष्य के भले बुरे चिंतन के ही परिणाम हैं। इसके अनुसार ही ग्रह, नक्षत्रों का प्रभाव पड़ता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118