भारतीय संस्कृति – बनाम आरण्यक संस्कृति

November 1986

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श्रीमद्भागवत में भगवान् के विराट रूप का वर्णन करते हुए वृक्षों को परब्रह्म के केश रोम कहा गया है। केश किसी शरीर की शोभा, सज्जा एवं सुरक्षा को बढ़ाते हैं। भगवान् के सौंदर्य का वर्णन करना हो तो उगी हुई हरीतिमा के रूप में ही उसकी विरुदावलि गानी पड़ेगी। प्रकृति का सौंदर्य समीप से देखना हो तो आकाश के सूर्य, चंद्र, तारागणों का वर्णन करने की अपेक्षा नयनाभिराम हरीतिमा का ही वर्णन करना पड़ेगा।

भारतीय संस्कृति के तत्वज्ञान की अपेक्षा यदि उसके दर्शनीय स्वरूप का विवेचन करने के लिये कहा जाय तो उसे आरण्यक-संस्कृति कहना पड़ेगा। आरण्यक अर्थात् वन। धर्मशास्त्रों में आचार संहिता प्रकरण ‘आरण्यक’ वाङ्मय के रूप में ही हुआ है। आरण्यक ही भारतीय तत्वज्ञान का उद्गम स्रोत है।

प्राचीन काल में सुविधा सम्पन्न बड़े नगर न रहे हों, ऐसी बात नहीं है, पर मनीषियों और तपस्वियों ने अपने लिये जो कार्य क्षेत्र चुना वह आरण्यक ही रहा। तरुणाई की हिलोरें स्थिर होते ही विज्ञ जन वन गमन की योजना बनाते थे। वानप्रस्थ व्रत ग्रहण करते थे। वानप्रस्थ का तात्पर्य है वन में रहना। जीवन का पूर्वार्ध अध्ययन और उपार्जन में लगाने के उपरान्त शेष जो प्रौढ़ता और परिपक्वता हाथ रहती थी उसका श्रेष्ठतम उपयोग वन क्षेत्र में निवास करते हुये बन पड़ता था।

आत्मिक प्रगति और परिष्कृत जीवनचर्या के लिये वन पर्वतों से, नदी- सरोवरों से भरा पूरा क्षेत्र ही उपयोगी वातावरण की पूर्ति करता है। यह प्रयोजन भव्य भवनों और सघन शहरों में रहकर नहीं हो सकता। वहाँ का वातावरण ही ऐसा होता है जिसमें लिप्साएँ, लालसायें घटती नहीं, बढ़ती ही हैं। इसलिये उस वातावरण में कभी कोई ऋषि, मनीषी नहीं रहा। वरन् जिस पर अपना प्रभाव रहा उन्हें भी अपने साथ घसीट ले गये। वशिष्ठ रघुवंशियों के कुलगुरु थे, पर उनका निवास शिवालिक पर्वत की वशिष्ठ गुफा में ही रहा। विश्वामित्र राम लक्ष्मण को उच्चस्तरीय विद्यायें सिखाने के लिये उन्हें अपने आश्रम में ले गये। अयोध्या की शोभा, सुन्दरता कम नहीं थी पर वहाँ न तो वशिष्ठ रहे न विश्वमित्र। अन्य ऋषियों के आश्रम, आरण्यक व गुरुकुल वन प्रदेशों में ही थे।

सुसम्पन्न लोगों के लिये सुविधा इसी में थी कि अपने महलों में किन्हीं अध्यापकों को नियुक्त करके बालकों की शिक्षा पूरी करायें। जो सुविधा स्वयं उपलब्ध करते हैं, उन्हें ही बालकों को करायें। आँखों के तारों को, आँख के सामने ही रखें। पर दूरदर्शी विवेकशीलता ने उन्हें यही सुझाया, समझाया कि उन्हें प्रकृति की मनीषी की निकटता में रहने दिया जाय। मोहग्रस्त होकर बालकों को सुविधाओं के लालच में फँसाना उनकी प्रतिभा को कुण्ठित करना है। यह प्रयोग रावण सरीखों ने किया भी था। उसका सुविस्तृत परिवार हेय दृष्टिकोण अपनाये रहा और खरदूषण, मारीचि, सूर्पणखा, सुरसा जैसे व्यक्तित्व विनिर्मित करता रहा।

अरण्कों में रहकर प्रकृति का वैभव आत्मसात् करना तो महत्वपूर्ण है ही, साथ ही यह भी कम गौरव का विषय नहीं है कि वन सम्पदा को अधिकाधिक समुन्नत और सुविकसित किया जाय।

पेड़ों का लगाना, दस पुत्र उत्पन्न करने जैसा सौभाग्य माना गया है और वृक्ष काटना ब्रह्म हत्या के समतुल्य जघन्य कहा गया है। इस प्रसंग में कहीं कोई व्यतिरेक तो नहीं हो रहा। उसकी चौकीदारी ऋषि-मुनि ही सम्हालते थे। अपने समय के वे ही रेंजर थे और वे ही फोरेस्टर। अमृतोपम जड़ी बूटियों का विकास एवं संरक्षण उसी क्षेत्र में किया जाता था। तभी लक्ष्मण को जीवन दान देने वाली संजीवनी बूट वहाँ उपलब्ध होती थी और तभी यह संभव था कि च्यवन जैसे वयोवृद्धों को पुनः यौवन प्रदान करने वाला ‘अष्टवर्ग’ वहाँ उगे और बढ़े। सोम- वल्लरियाँ इसी क्षेत्र में उगती थीं और वही देवता उस दिव्य मधुपान के लिये लालायित होकर आते और निवास करते थे।

बुद्ध की तपश्चर्या जिस वट वृक्ष के नीचे हुई उसे बोधिवृक्ष के नाम से गौरवान्वित किया गया, और भी कितने ही ऐसे दिव्य वृक्ष हैं, जिनकी महिमा जितनी गाई जाय उतनी ही कम है। पिप्पलाद पीपल के फल खाकर ही अपना व्रतधारी जीवन क्रम चलाते थे।

विल्व, अश्वत्थ, आंवला, वट, अशोक आदि को देव प्रतिमा की तरह पूजा जाता था और उनके झुरमुटों में कुटी बनाकर मनीषिगण अपने शिष्यों सहित निवास करते थे। आयुर्वेद, से लेकर रसायन भस्मों तक की प्रयोगशालाएँ उसी क्षेत्र में थी। भारतीय रसायन शास्त्र का विकास इसी वातावरण में हुआ है। शास्त्रों और सद्ग्रन्थों का सृजन, अनुवाद एवं प्रतिलिपि करने का काम यहीं होता था। इन आरण्यकों से लाभ उठाने के लिये संसार भर के मूर्धन्य व्यक्ति वहाँ पहुँचते और अभिलाषा पूर्ण करके वापस लौटते थे।

राजा दिलीप को संतान की इच्छा पूरी कराने के लिये वशिष्ठ की गौयें चराने के लिये धर्मपत्नी सहित जाना पड़ा। शृंगी ऋषि को पुत्रेष्टि यज्ञ के निमित्त इसी क्षेत्र से दशरथ किसी प्रकार ले गये थे। व्यास गुफा में महाभारत समेत अठारह पुराण लिखे गये थे। कण्व ऋषि के आश्रम में भरत चक्रवर्ती की गढ़ाई और ढलाई हुई थी। बाल्मीकि के आश्रम में लव कुश ने जो प्रशिक्षण प्राप्त किया था वह दशरथ कुमारों से हल्के दर्जे का नहीं था। राम ने चौदह वर्ष के वनवास को अपना सौभाग्य माना था। शारीरिक असुविधाओं के रहते हुये भी उस क्षेत्र में पति के साथ रहने का लोभ सीता भी संवरण नहीं कर सकी थीं। राजकुमारी सावित्री ने वनवासी सत्यवान से विवाह किया था।

समुद्र मंथन में चौदह रत्न निकले थे। भारतीय संस्कृति का अनमोल रत्न आरण्यक संस्कृति के सुव्यवस्थित क्षेत्र में ही निकला और संसार भर को सभ्यता का पाठ पढ़ाने में समर्थ हुआ। उसकी गुरु-गरिमा और चक्रवर्ती स्तर की क्षमता इसी क्षेत्र में विकसित हुई थी। दिव्य मंत्र, दिव्य तंत्र, मूल मंत्र इन्हीं क्षेत्रों की प्रयोगशालाओं में विकसित होते थे।

भारत में प्राचीन काल के भव्य भवन दृष्टिगोचर नहीं होते, क्योंकि ऋषि युग में उनकी आवश्यकता ही न थी। विलास वैभव तो मात्र दो हजार वर्ष की अवधि में ही विकसित हुआ है। आरण्यक सभ्यता जब सम्पन्न सभ्यता के खण्डहरों में विलीन होने लगी तभी से देश पर दुर्भाग्य टूटा और पतन पराभव का अन्धकार उदय हुआ।


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