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November 1986

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जीवन का एक पक्ष संघर्ष भी है। भीतर के कुविचार और बाहर के अनाचार ऐसे हैं जिन्हें बिना लड़े, मात्र भलमनसाहत के आधार पर निरस्त किया जा सकता है।

बढ़ते हुये वायु प्रदूषण के साथ-साथ जल और आहार में भी विषाक्तता भर रही है। इन सभी का निराकरण अग्निहोत्र द्वारा होता देखा गया है। प्रदूषण का अनुपात नाप कर यदि अग्निहोत्र किया जाय, तो पीछे उसका प्रभाव दूसरा ही देखा गया है। वह प्रदूषण उड़ जाता है और वायु की शुद्धता स्पष्ट प्रकट होती है। यदि बड़ी संख्या में यज्ञ हों और उनकी शृंखला बराबर चलती रहे, तो बढ़ा हुआ वायु प्रदूषण जो दमा, कैंसर, अनिद्रा, तनाव, हृदयरोग, मधुमेह उत्पन्न करता है, उस आधार पर शमित हो सकते हैं। विशाल अन्तरिक्ष के वायुमण्डल का परिशोधन करने के लिए छोटी मात्रा में किये गये अग्निहोत्र भी काम दे सकते हैं। आवश्यक नहीं कि उतनी ही बड़ी तैयारी की जाय। बीमारियाँ समूचे शरीर के प्रकट और अप्रकट अवयवों में समाई होती हैं। पर उनका निराकरण औषधि की छोटी मात्रा ही कर सकती है। आवश्यक नहीं कि शरीर के भार या विस्तार जितनी औषधि का ही प्रयोग हो। इसी प्रकार यह सोचना भी व्यर्थ है कि जब समूचा वायुमंडल विकृतियों से ग्रसित हो रहा है, तो थोड़ी मात्रा में अग्निहोत्र से शोधन कैसे हो सकेगा?

अग्निहोत्र का वायुशोधन मारक पक्ष है। उसका एक विधायक पक्ष भी है। वह है- प्राण पर्जन्य की वर्षा। बादलों के साथ जो पानी बरसता है वह जमीन पर फैला हुआ जल ही भाप बन कर आसमान में उड़ता है और जहाँ उसे उपयुक्त-सा वातावरण मिल जाता है, वहीं बरस पड़ता है। वृक्षों की सघनता वर्षा को विशेष रूप से आमंत्रित करती है। इतना होते हुये भी यह बरसने वाला जल सामान्य ही होता है। उसे पीने, सिंचाई, धुलाई आदि के सामान्य कामों में ही लाया जा सकता है।

जल को विशेष शक्तिशाली बनाने के लिए उसमें कुछ उच्चस्तरीय तत्व मिला देने की योजना भारतीय वैज्ञानिकों ने बनाई है। अग्निहोत्र की ऊर्जा जब आकाश में फैलती है, तो वह किसी एक क्षेत्र में नहीं रहती, वरन् व्यापक बन जाती है। थोड़ा-सा तेल यदि पानी के बड़े पात्र में डाला जाय तो उसकी एक पतली परत समूचे जल पर छा जाती है। ठीक इसी प्रकार अंतरिक्ष में अग्निहोत्र की विशिष्टता एक आवरण बना लेती है। उस आवरण को एक विशेष प्रकार का प्राण माना गया है। उसे समेटते हुये जो वर्षा होती है उसमें प्राण-पर्जन्य घुला होता है। इसे एक प्रकार से जीवनी शक्ति ही कहना चाहिए। उस पानी की सिंचाई से जो घास, वृक्ष या अन्न, शाक, फल आदि पैदा होते हैं, उन सभी में अपेक्षाकृत अधिक जीवनी शक्ति होती है। उपभोक्ता पर वह तुरन्त अपना प्रभाव दिखाती है। उस विशिष्ट वर्षा से उत्पन्न घास को सेवन करके पशु अधिक बलिष्ठ होते हैं और उनमें से जो दुधारू हैं वे अधिक दूध देते हैं। दूध भी हलका नहीं होता, वरन् उस दूध, दही, घी में ऐसे रसायनों की अधिक मात्रा होती है, जो निरोग एवं बलिष्ठ बनाने में समर्थ हैं। इस विशिष्ट जल के आधार पर उत्पन्न हुये अन्न तथा शाक भी सामान्य के स्थान पर अधिक गुणकारी होते हैं और उपभोक्ताओं की जीवनी शक्ति बढ़ाते हैं। उस जल से उत्पन्न हुई औषधियों में पोषक एवं निवारक गुण अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में होते हैं। दूध पीने से तो तनिक-सा ही गुण करता है, पर यदि मिल्क इंजेक्शन के रूप में थोड़ी मात्रा में भी दूध को रक्त में सम्मिश्रित कर दिया जाय, तो उसका परिणाम तत्काल आवेश उत्पन्न करने के रूप में होता है। भाप से बनाई शराब में अल्कोहल होता है और उसके नशे में मनुष्य उत्तेजित हो उठता है। प्राण पर्जन्य में भी ऐसी ही विशेषतायें भरी होती हैं। उसकी वर्षा का पानी पीने से तथा उसके माध्यम से उपजे पदार्थों में ऐसी विशेषतायें होती हैं कि मात्रा में सीमित होते भी गुणों की दृष्टि से असाधारण एवं असीम होती हैं।

कई व्यक्ति अग्निहोत्र से वर्षा होने या कराने का दावा करते हैं। यह व्यर्थ है। यदि ऐसा हुआ होता तो रेगिस्तानों को सहज ही हरा-भरा बनाया जा सकता था। जिन क्षेत्रों में सूखा पड़ जाती है, वहाँ यज्ञ आयोजन से उस अभाव को दूर किया जा सकता है। तब संसार के सामने से एक बड़ी कठिनाई दूर हो जाती और यज्ञ का महत्व अन्यान्य वैज्ञानिक आविष्कारों की तुलना में कहीं अधिक माना जाता और खाद्य पदार्थों की, पानी के अभाव की कहीं कोई शिकायत न रही होती। ऐसे दावे लोग इसलिए करते हैं कि गीता में आये पर्जन्य शब्द का अर्थ सामान्य वर्षा बादलों से करने लगते हैं। जब कि उसका वास्तविक तात्पर्य प्राण पर्जन्य से है।


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