एक मूर्तिकार ने अपनी ही आकृति की दस प्रतिमाएँ बनाईं और उन्हीं में एक स्वयं खड़ा हो गया। अनेकों दर्शक आये पर असली नकली का भेद कोई न कर सका। उसी अवसर पर उनकी मृत्यु का समय आ गया और यमदूत पकड़ने आ गये। उन्हें भी पहचान न हो सकी तो उनने एक युक्ति काम में लाई, मूर्तियों में दोष निकालने आरंभ किये तो असली की भौहें टेढ़ी होने लगीं। दूसरे यमदूत ने बात की पुष्टि के लिए मूर्तिकार की प्रशंसा करनी आरंभ कर दी। इस पर उसकी मंद मुस्कान खिलने लगी।
पहचान हो गई। मनुष्य अपनी निन्दा पर अप्रसन्नता और प्रशंसा पर प्रसन्नता प्रकट करने से रुक नहीं पाता।