बुद्ध का लोकसेवी परिव्राजकों को सन्देश

November 1986

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भगवान बुद्ध ने उस दिन नवदीक्षितों के साथ-साथ पुराने परिव्राजकों को भी बुलाया और उनके कर्त्तव्यों का नये सिरे से बोध कराया और कहा कि “इन साधु मर्यादाओं का परित्याग करने या उनमें उपेक्षा बरतने से तुम अपने कार्य से भटक जाओगे। पथरीला मार्ग अपनाकर जहाँ-तहाँ ठोकर खाओगे। लक्ष्य से भटककर ऐसी जगह जा पहुँचोगे जिससे तुम्हारा व्रत प्रवेश आत्म प्रवंचना एवं जन उपहास का निमित्त कारण बनेगा।”

“हे तात! साधु धर्म का परिपालन बड़ा कठिन है। उसमें अपने आप पर ऐसी बड़ी दृष्टि रखनी पड़ती है, जैसे कि शासक अपराधियों के मुक्त होने पर भी उनके आचरणों की जाँच करते रहते हैं। भव बन्धनों से निकल कर आये हो, इसलिए पूर्व संचित लिप्सा, लालसाओं का यह दौर बना रहता है। अवसर पाते ही नई परिस्थितियों में नए ढंग से वे अपना कुचक्र चलाती हैं। बुद्धी को मोहित करती और पतन के गर्त्त में धकेलती हैं। इसलिए तुम्हें निरन्तर सावधान रहना चाहिए। बाह्य व्यवस्था के अनुशासन में प्रत्यक्ष कृत्यों को ही अनुबंधित किया जा सकता है, किन्तु यदि मानसिक दुर्बलता बनी रही तो चिन्तन की निकृष्टता ही कालान्तर में विपत्ति बन जाती है। छल छद्म चल पड़ता है। बड़प्पन का अहंकार सवार होता है तो उनकी पूर्ति का ताना-बाना बुनता चलता है और लुकछिप कर छद्म को चरितार्थ करने वाली रीति-नीति चुपके-चुपके स्वभाव में सम्मिलित हो जाती है।”

सो हे धर्म के पथिकों! पूरी तरह सावधान रहो ताकि पथ भ्रष्ट करने वाली विडम्बनाएँ तुम्हें ऊँचे से नीचे न गिरा दें।”

“अपना आहार स्वल्प, सस्ता और नियमित रखो। स्वादों का स्मरण मत करो। अन्यथा इच्छा, क्रिया रूप में परिणत हुए बिना न रहेगी। प्रत्यक्ष सन्त-परिव्राजक दीखते हुए भी परोक्ष रूप से असन्तों जैसे आचरण करने लगोगे।”

“पुत्रेषणा, कामकौतुक, धन की लालसा, बड़प्पन प्रदर्शन करने वाले ठाट बाटों को अपनाना, यह तो लौकिक प्रतिबंधों और अवसर न मिल पाने की व्यवस्था के कारण भी संयत रह सकते हैं। पर मनोभूमि पर केवल आन्तरिक अंकुश ही काम देते हैं। सतर्कता न बरती जाय तो लोकेषणा उग्र से उग्रतम होने लगती है और फिर अपनी पूर्ति के लिए कितने ही प्रपंच रचती और पाखण्ड फैलाती है।”

“लोकेषणा जब भड़कती है, तो उसकी अस्वाभाविक पूर्ति के लिए अनेकों ढोंग रचने पड़ते हैं। चमत्कार प्रदर्शन द्वारा मूर्खों को अपना भक्त बनाना और उनका शोषण करना चल पड़ता है। इसलिए इन चित्तवृत्तियों को ही संयत रखना योग कहा गया है। योगी अपने पहले चरण में गहरा आत्म विश्लेषण करते हैं और कषाय कल्मषों में से जो कचरा जमा होता है, उसे बारीकी से निकाल बाहर करते हैं। आत्मावलोकन का यह पहला सोपान तुम सभी जीवन में उतार सको, तो ही सच्चे योगी बन पाओगे”।


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