प्रगति और अवगति से भरी इक्कीसवीं सदी

November 1986

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इक्कीसवीं सदी आने में अब बहुत दिन नहीं रहे। मात्र चौदह वर्ष शेष हैं। विश्व इतिहास और मानव-जीवन की दृष्टि से यह कोई बड़ी अवधि नहीं है। दूरदर्शी इसे समीप आया समझकर सामने ही पाते हैं। यह बहुचर्चित है कि इक्कीसवीं सदी महत्वपूर्ण होगी। उसमें प्रगति की दर अधिक बढ़ जायेगी। इस दृष्टि से उसे आशा भरी दृष्टि से देखा जाता है और प्रतीक्षा की जाती है कि वह समय जल्दी आये, जिसमें सुख-सुविधाओं का अनुपात अब की अपेक्षा अधिक बढ़ा-चढ़ा हो।

यह कथन एक सीमा तक ही सही है। निःसंदेह वैज्ञानिक प्रगति तेजी से हो रही है। नित नये आविष्कार सामने आ रहे हैं। इनका उद्देश्य काम को सरल बनाना और सुविधाओं को सस्ते मोल में, बड़ी संख्या में उपलब्ध कराना है। सुविधाएं कौन नहीं चाहता? सरलता किसे पसन्द नहीं? सस्ते को खरीदने के लिये किसका मन नहीं चलता। इस दृष्टि से भविष्य के सम्बन्ध में अच्छी आशा करना उचित ही है। किन्तु इस प्रगति से कुछ खतरे भी हैं, जिन्हें समय रहते हमें समझ लेना चाहिये।

हाथ से होने वाला काम यदि मशीनें करने लगेंगी तो मनुष्य का कौशल भी घटेगा और परिश्रम करने की इच्छा एवं योग्यता भी घटेगी। मनुष्य का काम मशीनें जितनी अधिक मात्रा में करेंगी, उसी अनुपात में बेकारी बढ़ेगी। रोजगार मिलने के साधन घट जायेंगे। जिनके पास पर्याप्त धन है, वे निश्चय ही उनका उपयोग करके मोद मनायेंगे। पर साधनहीन लोगों के लिए कठिनाई और भी अधिक बढ़ जायेगी। उन्हें बेरोजगारी का सामना करना पड़ेगा। समीप में ही खुशहाल लोग रहें और पड़ौस में ही गरीब भुखमरे भरे हों तो उसका परिणाम ईर्ष्या-द्वेष के रूप में बढ़ेगा। जिनके सामने अधिक कमाने के अवसर नहीं हैं, वे भी सुसम्पन्नों जैसी सुविधा का उपभोग करना चाहेंगे। इसके लिये उन्हें चोरी बेईमानी का रास्ता अपनाना पड़ेगा। फलतः समाज की सुव्यवस्था टूटेगी। अराजकता जैसी स्थिति बनेगी। इस खतरे को देखते हुये, अगले दिनों वैज्ञानिक प्रगति का ध्यान रखते हुये हमें चाहिये कि उपार्जन का वितरण इस प्रकार संभव बनावें कि बेरोजगारी न बढ़े, और अपराधों के लिये उस स्तर के लोगों की भरमार न हो, जिन्हें ईर्ष्यालु, आलसी अनपढ़ एवं दरिद्र कहा जाता है।

बुद्धिवाद की वृद्धि इन दिनों भी हो रही है। शिक्षा-सम्वर्धन के प्रयास अगले दिनों भी चलेंगे। आबादी भले ही बढ़ती रहे पर शिक्षा प्रसार के प्रयास उससे आगे ही रहेंगे। अगले दिनों शिक्षितों की दूसरे शब्दों में बुद्धिमानों की अभिवृद्धि होगी। इसे प्रसन्नता और सौभाग्य की बात ही कहा जा सकता है। पर साथ ही संकट यह भी जुड़ता है कि शिक्षा की दिशा धारा, अर्थ-परायण एवं स्वार्थ पर आधारित बन रही है। उसके साथ नीति का सम्बन्ध जोड़ने की अपेक्षा तोड़ने का प्रतिपादन जुड़ रहा है। बूढ़े बैल को कसाई के हाथों बेच देने में आर्थिक लाभ दीखता है। इसलिये उस दया भाव की उपेक्षा की जा रही है। जिसके अनुसार अपंगों, वृद्धों, रोगियों को जीवित रखने के लिये मनुष्य जाति की सीमा में प्रयत्न होते रहते हैं। वयोवृद्ध अभिभावकों की सेवा-सुश्रूषा को कर्तव्य माना जाता है। भले ही उसमें वंशजों को असुविधा ही क्यों न उठानी पड़े। पर बुद्धिवाद, प्रत्यक्षवाद, उपयोगितावाद अर्थ लाभ वे बढ़ते हुये तर्क बूढ़े बैल या गाय को उपार्जन की दृष्टि से लाभदायक न रहने पर, कसाई के हाथों बिकवा देने वाला ‘दर्शन’ बूढ़े माँ बाप के साथ वैसा ही व्यवहार करने से क्यों चूकेगा? हो सकता है कि न कमाने वालों को भार रूप माना जाने लगे और बालकों का अन्त गर्भपात कराने से और बूढ़ों को विषैली सुई लगाने से अन्त करने की प्रथा चल पड़े। अर्थ-लाभ ही जब प्रधान है तो उदारता, सेवा पुण्य-परमार्थ जैसे कार्यों की सहज उपेक्षा की जाने लगेगी। अन्न का उत्पादन कम पड़ता दीखेगा तो अन्य प्राणियों को उदरस्थ किया जाने लगेगा। तब विश्व बंधुत्व और जीव दया जैसे सिद्धान्तों का परिपालन करना तो दूर, उन्हें मूर्खतापूर्ण बताया जाने लगेगा। जब पशु वध करने में दया भावना को आड़े नहीं आने दिया जायेगा तो मनुष्य-मनुष्य पर भी छोटे-छोटे प्रयोजनों के लिये आक्रमण करने में क्यों चूकेगा? तब छल, अपहरण शोषण जैसे हल्के आक्रमणों तक ही लोग सीमित न रहेंगे, वरन् हत्याओं को भी समर्थ लोग एक खिलवाड़ जैसा मानेंगे।

अगले दिनों खतरा यह है कि बढ़ता हुआ बुद्धिवाद जिसमें अर्थ लाभ ही सब कुछ है; नीतिमत्ता और उदारता को किस हद तक जीवित बने रहने दे सकता है।

उच्च आदर्शों का प्रचलन, प्रशिक्षण एवं वातावरण घट रहा है। चतुरता को ही बुद्धिमत्ता माना जाने लगा है। जो दूसरे को जितना मूर्ख बना सके, वह उतना ही बड़ा बुद्धिमान है। इस परिभाषा के सामने न नीतिमत्ता का कोई अस्तित्व रह जाता है और न आदर्शवादिता का। मर्यादाओं और वर्जनाओं से मुक्ति पाकर स्वेच्छाचारी मनुष्य वासना और अहंता की पूर्ति के लिये झुकेगा उसका परिणाम यह होगा कि नर-नारी एक दूसरे के कार्यों के सहयोगी न रहकर शोषण में प्रवृत्त होंगे। इससे उनका शरीर बल भी टूटेगा और मनोबल भी गिरेगा। समर्थता, दुर्बलता में बदलती रहेगी।

नर नारी के बीच माता, भगिनी, पुत्री, धर्मपत्नी की पवित्र भावनायें आत्म संबंधों का अंकुश लगाती हैं। मर्यादाओं के पालन का दबाव डालती हैं। पर जब नारी को रमणी, कामिनी के रूप में चित्रित, सज्जित, सहमत किया जाने लगेगा और वह मनोरंजन भर कहा जाने लगेगा तो समझना चाहिये कि दाम्पत्य जीवन की पवित्रता एवं वफादारी चली जायेगी। फलतः उस परिवार संस्था का विनाश होगा जिसे नर रत्नों की खदान समझा जाता था अविश्वासी दम्पत्ति जीवन की अस्थिरता, अभिभावक की कुटिलता से प्रभावित बालक महामानव बन सकेंगे, इसकी आशा करना आकाश कुसुम तोड़ने के समान है।

आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता का तत्व दर्शन नये बुद्धिवाद की दृष्टि में अन्धविश्वास माना जाने लगा है। यदि यह मान्यता अधिकाँशतः लोगों पर चढ़ दौड़ी तो समझना चाहिये कि कर्मफल, परलोक, ईश्वरीय न्याय की मान्यता को कोई श्रेय न मिलेगा और मनुष्यों में जंगल का कानून चल पड़ेगा।

नीतिमत्ता की उपेक्षा करके स्वार्थ साधना को प्रमुखता देने का परिणाम यह हुआ कि प्रदूषण, विकिरण, बहुप्रजनन, अणु युद्ध जैसी विभीषिकाएँ सामान्य जीवन को राहु-केतु बनकर आतंकित कर रही हैं। अब अगले चरणों की तैयारी है। उसमें नीतिमत्ता, धर्मनिष्ठा का स्थान जब विडम्बनायें ग्रहण करेंगी तो न कहीं सत्साहित्य दृष्टिगोचर होगा, न सत्संग। न निर्दोष मनोरंजन होगा, न आदर्शवादी प्रचलन। इन परिस्थितियों में घिरी हुई मनुष्य जाति दीन-हीन और दयनीय ही बनकर रहेगी। भले ही उसके पास विपुल सुविधाएँ और भरमाने फुसलाने वाली बुद्धिमत्ता के अम्बार ही क्यों न लगे हों?

इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल भविष्य के आकर्षणों को ध्यान में रखते हुये हमें प्रसन्न और आशान्वित होना चाहिये। किन्तु साथ ही उन खतरों को भी भूल नहीं जाना चाहिये जो प्रगति को अवगति में बदलने के लिये उतारू हैं।


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