प्रकृति ही नहीं, पुरुष भी

November 1986

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लाखों करोड़ों वर्ष पुरानी बात है। वैज्ञानिकों के अनुसार उस काल में एक बदली इस अनन्त आकाश में छाई हुई थी। लम्बे समय तक वह इसी प्रकार कुछ हलचलें करती हुई, अपने समीपवर्ती क्षेत्र में घूमती रही। फिर अचानक उसके भीतर से एक तीव्र ऊर्जा उत्पन्न हुई। वह असाधारण थी। गर्मी की अति हो जाने पर वह फूट पड़ी। विस्फोट अति भयानक था। इतने जोर का कि उसके पीछे काम करने वाली शक्ति की प्रचण्डता का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। बदली बड़ी थी। आगे बढ़ी तो उसके खपच्चे उड़ गए। समूचे अन्तरिक्ष में वे छा गए। इनमें से प्रत्येक अत्यन्त ऊँचे स्तर के आवेश से भरे थे। सो आगे की ओर बढ़ते गए। इस तीव्रता में थोड़ी न्यूनता आई तो उनने अपनी-अपनी धुरी पर घूमना आरम्भ कर दिया। जो इनमें अधिक बड़े और बलिष्ठ थे उनने अपने प्रभाव क्षेत्र को दूर-दूर तक फैलाया और उस परिधि में जो भी पिण्ड आ गए, उन्हें अपने परिकर में जकड़ कर एक मण्डल बना लिया।

एक बदली के स्थान पर अन्तरिक्ष में अनेक नक्षत्र मण्डल बने और जिनने पकड़ स्वीकार कर ली वे उस परिवार के स्थायी सदस्य बन गए। अपना सौर मंडल ऐसे ही नवग्रहों और 43 उपग्रहों का एक छोटा-सा समुदाय है। ऐसे-ऐसे असंख्यों हैं। कुछ तो इतने बड़े हैं, जिनमें से एक-एक के पेट में हमारे सौर मण्डल जैसे लाखों घटकों के समा जाने जैसी स्थिति है। सूर्य से लाखों गुने सूर्य भी नक्षत्र परिवार के बीच पाये गए हैं।

कहा जाता है कि आरम्भ में सभी पिण्ड अग्नि जैसे तप्त थे। कुछ समय बाद उनकी ऊपरी परत ठंडी होने लगी। इस ठंडक और गर्मी के संयोग ने हवा पानी को जन्म दिया और हमारी पृथ्वी पर घटाटोप वर्षा होने लगी। अन्य गोलकों का क्या हुआ? इसका अनुमान लगाने के कोई प्रत्यक्ष एवं विश्वसनीय प्रमाण नहीं हैं। पृथ्वी की परतों की खोज कर और समुद्र की गहराई में घुसकर, समीपवर्ती वातावरण का विश्वस्त आधारों पर निरीक्षण-परीक्षण करके जाना जा सका है कि भूमण्डल की स्थिति क्या है? किन्तु अन्य तारक बहुत दूर हैं इसलिए उनकी स्थिति का पर्यवेक्षण उतनी अच्छी तरह लगाया नहीं जा सका है। केवल अनुमान के आधार पर ही कुछ मान्यता बनती है।

पर पृथ्वी के बारे में ऐसी बात नहीं है। उन्हें प्रत्यक्ष इन्द्रिय-ज्ञान, बुद्धि-कौशल और उपकरणों के सहारे बहुत कुछ समझा गया और ज्ञान वृद्धि के साथ-साथ क्रमशः अधिकाधिक जाना जाता रहेगा। पृथ्वी के सम्बन्ध में उपलब्ध और संचित जानकारी में बहुत कुछ यथार्थता है। यों उन मान्यताओं में नये प्रमाणों के आधार पर आए दिन सैद्धान्तिक परिवर्तन भी होते रहते हैं।

विषय वस्तु यह है कि प्रकृति का मूल पिण्ड और उसके घटक सभी जड़ पदार्थों के बने थे। उनकी संरचना पंचतत्वों के आधार पर थी। फिर जीवधारियों की उत्पत्ति कैसे हुई? जड़ से इच्छा-ज्ञान और स्वतंत्र-ज्ञान वाला प्राणी कैसे उत्पन्न हुआ? जड़ और चेतन के बीच मौलिक भिन्नता है। जड़ के भीतर हलचल तो है पर बुद्धि नहीं। इच्छा, कल्पना, भावना और ऐसी चेष्टा भी नहीं जो प्रतिकूलताओं को अनुकूल बनाने के लिए प्रयत्न कर सके। प्रकृतिगत विशेषताओं से जन्मने, बढ़ने और परिवर्तित होने की क्रियाशक्ति तो है पर वह परिस्थितियों को अधिक अनुकूल एवं उन्नत बनाने के लिए नीति निर्धारण करने और उनमें समय-समय पर हेरफेर करने का गुण जड़ में नहीं है। इस विशेषता और भिन्नता के कारण ही उसे चेतन कहा जाता है। जड़ चेतन एक दूसरे की सहायता तो करते हैं, पर कोई किसी को जन्म नहीं दे सकता। उसका निमित्त कारण नहीं बन सकता। इसलिए दार्शनिकों ने जड़ चेतन के अस्तित्वों को पृथक और स्वतंत्र माना है। द्वैतवाद इसी को कहते हैं जिसमें ईश्वर और प्रकृति को सहचरी भर माना गया है, किसी को किसी का जन्मदाता नहीं।

भौतिक विज्ञान की मान्यता अलग और अनोखी है। उसका कहना है कि वस्तु की सड़न और हवा पानी के सम्मिश्रण से ऐसे रसायनों का जन्म होता है जो सचेतन स्थिति को अपने अस्तित्व का स्वतंत्र परिचय देने लगते हैं। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि प्रकृति के गर्भ से ही चेतन की उत्पत्ति हुई। वही उसकी अधिष्ठात्री है। इस कथन पर जोर देते हुए भी विज्ञान इस प्रश्न पर निरुत्तर है कि माता स्वयं ही बालक को जन्म नहीं दे लेती। उसमें पिता की दूसरी सत्ता का भी सहयोग एवं अंशदान है। प्रकृति को यदि माता माने और उसी के रासायनिक घटकों से जीवों की उत्पत्ति की मान्यता हो तो फिर पिता की जरूरत नहीं रह जाती। ऐसा तो फूलों में भी नहीं होता। वे नर मादा स्तर के परागों के मिलन का सुयोग बिठाते हैं, तब फलते-फूलते हैं। प्राणियों के प्रजनन में तो यह तथ्य और भी स्पष्ट है। उनमें नर मादा का संयोग विशेषतः आवश्यक होता है। इसी आधार पर प्रजातियाँ जन्म लेतीं और क्रमिक विकास के पथ पर आगे बढ़ती हैं।

वैज्ञानिक आग्रह यह अभी भी बना हुआ है कि पृथ्वी पर पाये जाने वाले रासायनिक पदार्थ ही विशेष परिस्थितियों में बदलकर प्राणी बन जाते हैं। इसलिए पृथक सचेतन स्तर की मान्यता देने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं रह जाती। प्रकृति ही सर्वेसर्वा है।

सहस्राब्दियों से चली आने वाली इस मान्यता का-खोज के नये चरणों ने खण्डन करना शुरू कर दिया है। अन्य ग्रह तारकों से टूट-टूट कर जो उल्का पिण्ड धरती पर गिरे हैं, उनका विश्लेषण करने पर पता चलता है कि उनमें मात्र प्रकृति पदार्थ ही नहीं वरन् सचेतन जीवाणु भी मौजूद हैं। साथ ही वे इस स्थिति में भी हैं कि किसी भी जटिल स्थिति में रहकर अपना निर्वाह कर सकें। चट्टानों के भीतर ऐसे जीवन पाये गए हैं, जो हवा पानी का प्रत्यक्ष प्रवेश न होने पर भी लम्बी अवधि तक जीवन धारण किये रह सकें। उन पर शीत ग्रीष्म का प्रभाव भी नहीं पड़ता। घोर शीत और अत्यधिक उष्णता के बीच भी वे अपना क्रिया-कलाप चलाते रह सकते हैं। उन्हें प्रकृति की किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं पड़ती और न किसी पदार्थ का सहयोग पाने की अनिवार्यता रहती है। ग्रह निर्माण से बचा हुआ कचरा धूमकेतुओं को समझा जा सकता है। निरीक्षण ने उनमें भी जीवाणु पाये हैं। इतना ही नहीं अति शीतल और अति उष्ण ग्रहों के मध्य भी जीवन सत्ता का अस्तित्व देखा गया है।

यह अन्वेषण फिर विज्ञान को उसी द्वैतवाद की ओर ले जाता है जिसके अनुसार सीताराम, उमा महेश, राधा कृष्ण, शची पुरन्दर आदि के युग्मों को साथी सहचर तो माना गया है पर अभिन्न नहीं। प्रकृति में उत्पादन की क्षमता तो हो सकती है पर उनका बीज तंत्र परमात्मा को ही मानने के लिए विवश होना पड़ता है। परमात्मा प्रकृति में विलीन नहीं है और न ही जोड़ा जा सकता है। उसकी स्वतंत्र सत्ता मानने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। वस्तुतः प्रकृति और पुरुष के संयोग से ही जीव का जन्म हुआ है। यह जानते हुए ही मूल सृष्टा परमात्मा को ही मानकर चलना पड़ेगा।


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