परमयोगी शुकदेव को आश्चर्य हुआ कि राजभवन में वैभवपूर्ण जीवन बिताने वाले महाराज जनक विदेह व परमज्ञानी क्यों माने जाते हैं। शंका समाधान हेतु वे मिथिला आकर महाराजा जनक के पास अतिथि हुये।
एक दिन प्रातःकाल सम्राट ने तपस्वी से सरयू नदी में स्नान के लिये चलने की प्रार्थना की। तट पर पहुँच कर जनक ने अपने बहुमूल्य वस्त्र उतारे व नदी में उतर गये। शुकदेव ने भी अपने वल्कल उतारे और स्नान करने लगे। स्नान के बाद वे दोनों सन्ध्या पूजन में मग्न हो गये। तभी कहीं से आवाज आयी- “आग! आग!” शुकदेव ने आँख खोली। घाट से लगा भवन धू-धूकर जल रहा था। शुकदेव अपने वल्कल उठाने तट की ओर भागे किन्तु सम्राट निष्कंप दीप शिखा की भाँति अचल रहे। तट का चीत्कार उन्हें रंच मात्र भी हिला न सका। सम्राट पूजा समाप्त कर चुके तो तपस्वी ने उन्हें अग्निकाँड का समाचार दिया। वे हँस कर बोले- “मिथिलायाम प्रदग्धायाम ना में दहति किंचिन” तपस्वी श्रेष्ठ! समस्त मिथिला के जल जाने पर भी मेरा कुछ नहीं जलता।
महाराज जनक की इस निर्लिप्तता ने तपस्वी की शंका का समाधान कर दिया।