प्रेम और भावावेश का अन्योन्याश्रित संबंध नहीं है। ऐसा उभार कवि कल्पनाओं में तो सम्मिलित हो सकता है। पर यथार्थ के साथ उसका कोई घनिष्ठ और वास्तविक संबंध नहीं है।
यह ठीक है कि प्रेम प्रसंग में कभी-कभी उचंग भी आ जाती है और माता बच्चे को चूमने दुलारने लगती है। पर यह एक आवेश स्थिति है। साधारणतया तो माँ का वात्सल्य उस स्तन पान कराने, स्वच्छ रखने, ऋतु प्रभावों से बचाने जैसे क्रिया कृत्य में सारे दिन लगा रहता है। बच्चे के कुछ बड़े होने पर वह दुलारने की उचंग घट जाती है और उसके मनोरंजन, स्वास्थ्य, स्वच्छता, सुन्दरता आदि की व्यवस्था में जुड़ जाता है और बड़े होने पर तो उसकी गलतियों को सुधारना और सज्जनोचित शालीनता का अध्ययन, अध्यापन का कार्य ही प्रमुख रह जाता है। वह महत्वाकांक्षी कैसे बने? महत्वाकांक्षाओं को पूरी कैसे करे? यह विचार विनिमय, निर्देशन, परामर्श मुख्य रूप से कार्यान्वित होता है। प्रौढ़ और तरुणों को साहस प्रदान किया जाता है और ऐसा कुछ करने के लिए कहा जाता है जिससे महत्वाकांक्षी प्रगति बने पड़े।
प्रेम अनेक कारणों से, अनेक व्यक्तियों के बीच, अनेक रूपों में प्रकट होता है। साथ-साथ रहने, एक जैसा काम करने, समान रुचि और क्रिया वाले लोगों के बीच मैत्री के रूप में प्रेम प्रकट होता है। इसमें आदान-प्रदान की न्यूनाधिकता के कारण घट बढ़ भी होती रहती है।
दाम्पत्य स्तर का प्रेम चाहे पति-पत्नी के रूप में हो या जार व्यभिचार के रूप में। नवीनता के कारण उसमें उत्साह की अति देखी जाती है। एक दूसरे के साथ घुल-मिल जाना चाहते हैं। थोड़ी देर की पृथकता से व्याकुल होने लगते हैं। इसमें काम कौतुक विशेष रूप से अपनी भूमिका निभाता है। वैसी ही कल्पनाएँ मस्तिष्क में मंडराती रहती हैं और उस प्रयोजन में प्रयुक्त होने वाले अवयव बड़े सुन्दर और सरस भी लगते हैं। किन्तु यह सब आरंभिक दिनों में ही होता है। संबंध पुराने पड़ जाने पर घर गृहस्थी की, पारिवारिक व्यवस्था की बात प्रमुख हो जाता है। यौनाचार की लकीर तो पिटती रहती है, पर उसमें वह सरसता और व्याकुलता नहीं रहती जो आरंभिक दिनों में थी।
प्रश्न यह है कि क्या प्रेम का स्वरूप और रस चिरस्थायी है? क्या वह निर्विकार निःस्वार्थ है? तो यही उत्तर बन पड़ेगा कि स्वार्थपूर्ति एवं अभिरुचि की विशिष्टता इसे उत्पन्न भर कर सकती है पर उसे एक रस एवं चिरस्थायी नहीं बना सकती।
वास्तविक प्रेम वह है जो उच्च आदर्शों से प्रेरित हो जिसमें परमार्थ भावना और उदार करुणा का समावेश हो। ऐसा प्रेम सेवा प्रवृत्ति के रूप में दीख पड़ता है, उसमें निःस्वार्थता रहती है। प्राप्त करने के स्थान पर देने का ही मन रहता है। आवश्यक नहीं कि यह देना उपहार के रूप में धन साध्य हो। वह शारीरिक श्रम सेवा के रूप में हो सकता है और सद्भावना सहानुभूति के रूप में भी। सत्परामर्श एवं विशुद्ध सहयोग को भी इसी श्रेणी में गिन सकते हैं।
प्रेम की इन दिनों चर्चा बहुत है। उसका नाम लेकर ढेरों गीत सुने और सुनाये जाते हैं, किन्तु विश्लेषण करने पर प्रतीत होता है कि उनमें से अधिकाँश में काम कौतुक का ही समावेश होता है। प्रणय निवेदन एवं यौनाचार करी उत्तेजना में प्रेम की झाँकी करने की विडम्बना चलती है, किन्तु गहराई में खोजने पर प्रतीत होता है कि यह एक प्रकार का भावोन्माद है। जिसे आत्मीय समझा जाता है, अपनी इच्छा के अनुरूप बरतते देखा जाता है, वही प्रिय लगने लगता है। यह उभार नशे की खुमारी जैसा होता है और हल्का पड़ने पर ढलता चला जाता है। वास्तविक और चिरस्थायी प्रेम तो वही हो सकता है जिसमें आदर्श घुले हुए हों और सेवा सहायता का भाव हो।