गरीबों के साथ गरीब बनकर रहो!

November 1986

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खलीफा अबूबक्र के उपरान्त उस स्थान पर हजरत उमर नियुक्त हुए। उनकी शासकीय कुशलता, बहादुरी और दूरदृष्टि में कोई कमी न थी। पर वे निज की सुविधाओं में कटौती ही करते रहते। रूखा-सूखा खाते और मोटा-झोटा पहनते।

दरबारियों ने उन्हें सुख सुविधापूर्वक रहने और अच्छी पोशाक पहनने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने स्पष्ट इन्कार करते हुए कहा- “राजकोष प्रजा की अमानत है। मैं उसका सर्वोत्तम उपयोग करने के लिए संरक्षक मात्र हूँ। उसकी दौलत का भक्षक नहीं बन सकता।”

वे जौ की रोटी खाते थे। किसी ने कहा देश में गेहूं उपजता है फिर आप उसका उपयोग क्यों नहीं करते? उनने कहा- “कि क्या इतना गेहूं उपजता है कि हर एक के हिस्से में पर्याप्त मात्रा में आ सके? यदि नहीं तो किन्हीं को तो मोटे अनाज पर गुजर करनी ही पड़ेगी। यदि वह कार्य मैं करने लगूँ तो यह अच्छा ही रहेगा। इससे विषमता न पनपेगी और ईर्ष्या फैलने की गुँजाइश न रहेगी।”

वे मोटा कपड़ा ही नहीं पहनते थे वरन् फट जाने पर उसमें पैबन्द लगा लेते थे। उनकी निजी पोशाक में बारह पैबन्द थे। कपड़े की कमी से उसे बाहर न धुलाते। स्वयं ही धोते और एक ही होने के कारण तब तक बाहर न निकलते जब तक कि वह सूख न जाता। सीरिया की विदेश यात्रा पर भी उनने शाही पोशाक बनवाने की जरूरत नहीं समझी। वहाँ के लोग इस सादगी पर मुग्ध होकर रह गये।

हजरत गरीब अमीर सभी को अपने साथ बिठाकर खाने की प्रार्थना कराते। भोजन इतना सादा होता था कि न खाने वालों को संकोच होता और न राजकोष पर कोई बड़ा भार पड़ता। बावर्ची भी खीजता नहीं था। वे स्वयं किसी के यहाँ भोजन करने जाते तो कीमती पकवानों को हाथ न लगाते। कहते- “इस प्रचलन से देश में फिजूलखर्ची, विलासिता और गरीबी बढ़ेगी।” राजदूतों को भी वे वैसा ही खाना खिलाते, ताकि वे अपने यहाँ ऐसी ही सादगी की आवश्यकता पर जोर दें।

एक बार अकाल पड़ा। उन दिनों साधन जुटाने के प्रयत्नों के साथ उनने जनता को इस बात के लिए प्रशिक्षित किया कि सभी मिल-बांट कर खायें और अपने हिस्से में कमी करें।

एक बार निजी खर्च में तंगी पड़ी। मित्र से उधार ले लिया। उसने दे तो दिया पर साथ ही यह भी कहा- “आप तो शासनाध्यक्ष हैं। इतनी छोटी रकम तो राजकोष से भी उठा सकते हैं।” उनने कहा- “यह परम्परा डालने पर अन्य कर्मचारियों से ऐसा कराना कैसे रोक पाऊंगा?”

राजकर्मचारियों की नियुक्ति करते समय वे हिदायत देते- “महीन कपड़े न पहनना। मैदा प्रयोग न करना। दरवाजे पर द्वारपाल न बिठाना। ताकि बिना रोक टोक के प्रजाजन तुम तक अपनी बात कहने जा सकें।” नौकर नियुक्त करते समय उसकी निजी सम्पदा का हिसाब लिया जाता और बीच-बीच में उसे जाँचा जाता कि वह बढ़ तो नहीं रही है।

मिश्र के इलाके की ओर नियुक्त किया गया एक अफसर महीन कपड़े पहनने व ठाट वाट बनाने लगा था। शिकायत सही पाई गई तो उन्होंने उस अफसर को बुलवाकर कपड़े उतरवा लिए और एक कम्बल लपेटकर रहने तथा बकरियाँ चराने का काम दे दिया। अफसर अचकचाया तो उनने कहा- “तेरा बाप भी तो बकरियाँ चराता था। किसी काम को छोटा समझना और बड़ी पदवी के लिए आग्रह करना बुरी बात है।”

उस जमाने में शासकों के सामने हाथ बाँधकर खड़े होने और सिर पैरों पर रखने का रिवाज था। हजरत उमर ने उस रिवाज को बिल्कुल बन्द करा दिया और घोषित किया कि सभी इंसान खुदा के बन्दे और समान हैं।

वे विचारशील लोगों से कहा करते थे कि ऊँट की तरह न रहो जो नकेल ढीली करते ही बेकाबू हो जाता है और लगाम खींचते ही गरदन मरोड़कर पीछे रख लेता है। दबाव का इन्तजार न करो। उसे स्वेच्छापूर्वक अपनाओ जो विवेकपूर्ण व न्यायोचित है।


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