कामुकता का भ्रमजंजाल

November 1986

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पाश्चात्य मनोविज्ञान ने यह प्रतिपादित किया है कि मनोविकारों का दमन न किया जाय अन्यथा वे दमित होकर कई प्रकार की कुँठाएँ उत्पन्न करते हैं। मानसिक संतुलन को गड़बड़ा देते हैं और शारीरिक रोगों का सृजन करते हैं। उद्विग्न मन वाला मानसिक और शारीरिक दोनों ही प्रकार के स्वास्थ्य गँवा बैठता है।

स्वाभाविक इच्छाओं में वे कामुकता को प्रधानता देते हैं। उसे जन्मजात और सदा रहने वाली भी मानते हैं। उसके समाधान का उपाय काम सेवन की तृप्ति बताते हैं। आनाकानी करने पर कई प्रकार के शारीरिक-मानसिक रोग होने का भय दिखाते हैं। अजीब है यह मनोविज्ञान और अजीब हैं उनके शोध निष्कर्ष। इन्हें सही मानकर चला जाय तो मनुष्य जाति को ऐसे दलदल में फँसना पड़ेगा कि उसमें से निकल सकना ही संभव न रहे।

बच्चे द्वारा माँ का दूध पीने को इन मनोविज्ञानियों ने रति आनंद के समकक्ष बताया है। यदि इस स्तन पान को रति सुख गिना जाय तो आयु बढ़ने के साथ-साथ वह उत्कंठा भी प्रबल होती जानी चाहिए और वयस्क होने तक बालक को माता का दूध ही पीते रहना चाहिए। यह किस प्रकार संभव है।

कामुकता अन्यान्य जीव जन्तुओं में शारीरिक उमंग के रूप में उठती है और गर्भाधान का प्रयोजन पूरा करके कुछ ही समय में शान्त समाप्त हो जाती है। यह प्रस्ताव आमतौर से मादा ही करती है, क्योंकि गर्भ धारण उसी को करना पड़ता है। इस संदर्भ में काम आने वाले भीतरी प्रजनन अंग जब अपने लिए काम माँगते हैं, तो मादा का मन यौनाचार के लिए उत्साह प्रकट करता है। नर उसकी स्थिति को पहचानने के उपरान्त समाधान का सहयोग कर देना है। पशु पक्षियों में- कीट पतंगों में यही प्रथा चलती है परन्तु उस में इच्छा की प्रधानता मादा ही करती है। बिना उसका प्रस्ताव आगे आये, नर झुण्ड में साथ-साथ रहते हुए भी मादा से किसी प्रकार छेड़खानी नहीं करता। सार्वभौम मनोविज्ञान यही है। कामुकता और उसकी तृप्ति का अनुबंध भी यहीं है। मनुष्य भी प्रकृति परिवार का एक सामान्य प्राणी है। उसके ऊपर भी वही नियम अनुबंध लागू होते हैं, जो अन्य प्राणियों पर। फिर मनोवैज्ञानिकों का यह प्रतिपादन किस प्रकार व्यवहृत हो सकता है कि मनुष्य की इच्छाएँ कामुकता प्रधान हैं उनका दमन नहीं किया जाना चाहिए। तृप्ति से ही चैन पड़ता है, अन्यथा स्वास्थ्य बिगड़ जाता है।

यह प्रस्ताव ऐसा है जिसे मनुष्य के सभ्यताभिमानी ढाँचे के अंतर्गत किसी प्रकार पूरा नहीं किया जा सकता। समाज में विवाह एक अनिवार्य बंधन है। उसके कानूनों में ढील या कड़ाई हो सकती है पर विवाह तो विवाह ही है वह आदिम लोगों में भी होता है। यहाँ तक कि कई पशु पक्षी तक जोड़ा बनाकर रहते हैं। एक दूसरे पर अपने अधिकार की स्वेच्छा स्वीकृति देते हैं। मनुष्यों में तो यह प्रचलन सभ्यता का प्रमुख आधार समझकर उसे माना अपनाया जाता है। नारी की वासना गर्भ धारण करते ही शान्त हो जाती है, पर मनुष्य के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। उसने काम को एक कौतुक, विनोद और रसास्वादन जैसा मान लिया है। हर घड़ी नवीनता खोजता है। इस प्रकार उसकी शारीरिक तृप्ति एक ही से भले हो जाय, पर मानसिक तृप्ति के लिए तो अलिफ लैला जैसी नित नई शृंखला चाहिए। इतने पर भी मन की कल्पनाओं का क्या ठिकाना। उनका परीलोक तो हर घड़ी नया बन सकता है और फिल्म की लड़ी में उसे बदला जा सकता है। इतना उपभोग किस प्रकार संभव हो सके और फिर अभीष्ट तृप्ति किस प्रकार मिल सके। यदि इसी तृप्ति पर शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन टिका है तो उस बालू की भीत का गिरना निश्चित है। वह देर तक अपने पांवों पर खड़ी नहीं रह सकती। उसका प्रस्तावित उपचार वर्तमान मनुष्य की सामाजिक- पारिवारिक व्यवस्था रहते तो बन नहीं सकता। नये सिरे से नया स्वेच्छाचारी समाज गढ़ा जाय तो बात दूसरी है। उसमें भी बालकों, वृद्धों, नपुंसकों की इच्छा फिर भी अतृप्त ही बनी रहेगी और स्वास्थ्य संकट खड़ा ही रहेगा।

मान्यताएँ सर्वथा अधूरी और बेतुकी हैं। मन की मूलभूत संरचना को देखने से प्रतीत होता है कि जिस बात को जितने अधिक रसास्वादन का समावेश करते हुए स्मरण किया जाय वह मनःलोक पर उतनी ही गहराई तक छाती चली जायगी। जिसे स्मरण ही न किया जाय, जिसका महत्व ही अविदित अथवा स्वल्प हो उसकी न तो ललक उठेगी और न कामना ही जगेगी। जिन घोड़ों, बैलों या बकरों को नपुँसक बना दिया जाता है वे अपनी बिरादरी की मादाओं के साथ रहते हुए भी छेड़खानी नहीं करते, एक जाति के जीव ही यदि एक साथ रहें तो भी उनके मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। साध्वी बाल विधवाएं आरंभ से ही पर पुरुष गमन की कल्पना तक में पाप मानती हैं। फलतः उन्हें वैसा सोचते नहीं बनता। यदि कोई छेड़ भी दे तो वे सर्पिणी की तरह फुंसकार उठती हैं। यह शारीरिक या मानसिक बनावट की भिन्नता नहीं, वरन् संकल्प शक्ति की प्रमुखता है। कितने ही बाल ब्रह्मचारी संत महात्मा अपने व्रत के सच्चे भी होते हैं। उन्हें न तो वासना सताती है न दमन करने की आवश्यकता पड़ती है और न इस कारण उन्हें कोई रोग सताते हैं।

सच्चाई तो मनोवैज्ञानिक प्रतिपादन के सर्वथा विपरीत है। पाश्चात्य देशों में जहाँ यौन सदाचार का अब कोई महत्व नहीं रह गया है। वहाँ भी लाखों की संख्या में अविवाहित रहने वाले पादरी और महिलाएँ पाई जाती हैं। जैन साधु और साध्वी भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं। यह सभी आमतौर से अपना व्रत निबाह लेते हैं। अपवाद व्यतिक्रम तो यदा-कदा ही देखने सुनने को मिलते हैं। पाया गया है कि इन ब्रह्मचारियों के स्वास्थ्य भी अपेक्षाकृत अच्छे रहते हैं और वे दीर्घजीवी भी होते हैं। वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, कलाकारों में से कितनों ने ही जानबूझकर विवाह नहीं किया। प्रसंग आने पर वे सदा यही कहते रहे कि इस झंझट में पड़ने से उनकी तन्मयता एवं एकाग्रता में बाधा पड़ेगी। काम हर्ज होगा और वे अपने विषय में जितनी अधिक प्रगति कर सकते हैं, न कर सकेंगे। उनका कथन बहुत हद तक सही था। जिनके पीछे घर गृहस्थी का परिवार व्यवसाय का जितना बड़ा जाल-जंजाल बँधा रहता है, उनकी क्षमता छुटपुट प्रसंगों और चित्र-विचित्र समस्याओं में ही उलझी रहती है। वे एकनिष्ठा होकर किसी प्रयोजन में तन्मय नहीं हो पाते। फलतः उनकी विशेषतया आध्यात्मिक प्रगति आधी अधूरी ही रहती है।

कितने ही ऐसे उदाहरण भी देखे गये हैं कि पति-पत्नी उद्देश्य विशेष में एक दूसरे के सहायक रहने की दृष्टि से ही परस्पर बँधे रहे। उनने काम कौतुक में कोई रस नहीं लिया। रामकृष्ण परमहंस, जापान के गान्धी कागावा आदि के ऐसे ही उदाहरण हैं। जिनने अपने मन को ही साथी मान लिया उनमें जार्ज वर्नाडशा, राम मनोहर लोहिया जैसे कितने ही व्यक्ति हुए हैं जिनने अपनी जिन्दगी हँसी खुशी से काटी और उन्हें किसी प्रकार का अभाव नहीं खटका।


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