हमारा एक मात्र सच्चा अध्यापक है- आदर्श। उसकी शिक्षा दीक्षा लेने वाले छात्र नर रत्न बनकर निकलते हैं। इस पाठशाला से बढ़कर और कोई शिक्षा संस्थान नहीं।
यों शुद्धता तो अन्न-जल की भी आवश्यक है। पर वायु का नम्बर तो उनमें भी पहला है। जिस प्रकार क्लोरोफार्म को सुँघाकर मनुष्य क्षण भर में बेहोश किया जा सकता है या मारा जा सकता है, उसी प्रकार बढ़े हुये वायु प्रदूषण से भारी अहित हो सकता है। उससे सामान्य स्वास्थ्य बुरी तरह गड़बड़ा सकता है। मानसिक चेतना में कमी आ सकती है और लोगों के बीच सद्भाव मिटकर विग्रह खड़े हो सकते हैं। यह दुष्प्रभाव मनुष्य तक ही सीमित नहीं है। उसका प्रभाव पशु-पक्षियों सूक्ष्मजीवी कृमियों तथा अन्यान्य वर्गों के सभी प्राणियों पर पड़ता है, क्योंकि वायु पर सभी निर्भर हैं। यहाँ तक कि गहरे पानी में रहने वाले प्राणी भी अपने ढंग से जल में ही प्राण वायु प्राप्त कर लेते हैं।
जन्म संख्या बढ़ने पर अधिक चूल्हें जलने और अधिक मलमूत्र, पसीना आदि छोड़े जाने से गंदगी बढ़ती है। इस अनुपात से वृक्ष भी बढ़ने चाहिए थे, ताकि संतुलन बना रहे, किन्तु समय पर दुहरी मार पड़ रही है। एक ओर गंदगी बढ़ रही है दूसरी ओर उसे शुद्ध करने के स्रोत सूख रहे हैं। हरीतिमा का सफाया होता जाता है। खुले मैदान घट रहे हैं। घिचपिच के वातावरण में सीलन, सड़न, कोलाहल आदि की भी बढ़ोत्तरी होती है। तंग गलियों में जहाँ सूर्य का प्रकाश और हवा का प्रवाह रुक-रुक कर धीमा-धीमा पहुँचे वहाँ गंदगी बढ़ेगी ही और उस अस्वच्छता से जीवन संकट में पड़ेगा ही।
आवश्यक है कि समय रहते इस समस्या का समाधान सोचा जाय। इस संदर्भ में पूर्वजों के चिन्तन और सूक्ष्म विज्ञान पर आधारित एक ही उपाय है- अग्निहोत्र। यदि उसे समुचित मात्रा में करते रहा जाय, तो हम इस प्रस्तुत विपत्ति से बच सकते हैं।
दुर्गन्ध को सुगंध से मारने की विधा को सभी जानते हैं। गंदी नालियों में फिनायल छिड़की जाती है। सीलन भरे घरों में कोयले दहकाने का प्रचलन है। मच्छर भगाने के लिए कछुआ छाप बत्ती का प्रयोग अब बहुत जगह होने लगा है। डी.डी.टी. की गंध कृमियों को भगाती है। कमरों में अच्छा वातावरण बनाने के लिए धूपबत्ती, अगरबत्ती, लोहबान, गूगल आदि जलाये जाते हैं। ग्रह दशा का अनिष्ट टालने और देवताओं को प्रसन्न करने के लिए सुगंधित द्रव्यों की आहुति दी जाती है।
अग्निहोत्र के अनेकानेक लाभ हैं। उनमें से एक यह भी है कि आकाश में संव्याप्त गंदगी की काट करने की उसमें अपूर्व क्षमता है। इस कथन से मूल प्रतिपादन में कोई अन्तर नहीं पड़ता कि अग्निहोत्र से उत्पन्न कार्बन फैली हुई कार्बन में सम्मिलित होकर उसे बढ़ायेगी ही, घटायेगी कैसे?
यह ठीक है कि अग्नि जहाँ भी चलेगी, वहाँ ऑक्सीजन जलेगी और कार्बन उपजेगी। किन्तु यह नहीं मान लेना चाहिए कि गंदगी से उत्पन्न तथा सुगंध से उत्पन्न हुई कार्बन दोनों एक ही स्तर की हैं। उनमें जमीन-आसमान जैसा अंतर हैं। इतना ही नहीं, वे परस्पर विरोधी भी हैं। उनमें काटने की ही नहीं, बचाने की भी क्षमता है। तलवार आक्रमण के लिए ही काम नहीं आती, उससे आत्मरक्षा भी हो सकती है। सर्वमान्य सिद्धान्त है- “विषस्य विषमौषधम्। “विष की काट दूसरा विष करता है। होम्योपैथी के सिद्धान्त में तो पूरी तरह इस तथ्य को अपनाया गया है। उसमें रोगों की उत्पत्ति का कारण भी विष माना गया है और निवारण भी उसी को औषधि रूप में देकर किया गया है। यह बात अग्निहोत्र द्वारा कार्बन के उपाय द्वारा वायुमंडलीय विषाक्तता के शमन का प्रयोजन पूरा होते देखा गया है।