संसार हमारी ही प्रतिध्वनि, प्रतिच्छाया है।

November 1986

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बहिरंग जगत में सुन्दर और असुन्दर- श्रेय और प्रिय दोनों ही हैं। संसार में दुर्गन्ध भरा अनय और सुगन्ध-सौंदर्य से भरा पूरा कमल जैसा श्रेय भी है। यहाँ वह सब कुछ दीख पड़ता है जिसे अपने शुभ या अशुभ दृष्टिकोण से देखा जाता है।

अवाँछनीयता की तलाश है तो एक से एक बढ़कर कुकर्म और उन्हें करने वाले कुकर्मी सरलतापूर्वक खोजे जा सकते हैं। पर दृष्टि की अपेक्षा श्रेष्ठता की हो तो दृष्टिकोण सुधारना पड़ेगा। एक से एक बढ़कर सज्जन और सत्कर्मी भी अपने निकटवर्ती क्षेत्र में विद्यमान दृष्टिगोचर होंगे।

वस्तुतः हर किसी का संसार अपना-अपना है। भीतरी मान्यताएँ परिपक्व होकर आकाँक्षाओं के रूप में परिणत होती हैं। आकाँक्षाओं में चुम्बकत्व होता है वह अपने सजातीय व्यक्ति और घटनाक्रम तलाश लेते हैं।

आँख पर जिस रंग का चश्मा चढ़ा लिया जाय, संसार की सभी वस्तुएँ उसी रंग में रंगी दीखती हैं। चश्मा बदल देने पर नये काँच जिस रंग के हैं वस्तुओं का स्वरूप भी उसी रंग में बदल जाता है। अपना दृष्टिकोण ही चश्मा है वह जैसा भी होता है उसी रंग का संसार बन जाता है। वस्तुतः यहाँ भला बुरा सभी कुछ है पर उसमें से अपना संबंध उसी के साथ जुड़ता है जिस प्रकृति का अपना मन हो। अपने स्वभाव के अनुरूप वस्तुएँ खोजने में हमें कठिनाई नहीं होती। वे स्वयं ही अपने स्वभाव के अनुरूप जिसे पाती हैं उसके साथ चिपक जाती है।

बगीचे में फूल भी खिले होते हैं और उन पौधों की जड़ों में दिया गया दुर्गंधित खाद भी होता है। तितली, मधुमक्खी और भौंरे खिले हुए पुष्पों में असाधारण सौन्दर्य, सुगंध और रस देखते और ग्रहण करते हैं, किन्तु गुबरीले कीड़े को इस सबसे कोई सीधा संबंध नहीं होता। वे पौधे की जड़ में जाते और सड़े गोबर में विरमते तथा उसी को भोजन बनाते हैं।

संसार में भलाई और बुराई के भण्डार भरे पड़े हैं। उनमें से जिसे जिसकी आवश्यकता है, जिसमें रुचि है वह उसे ढूँढ़ लेता है। मिलने में कोई कठिनाई नहीं होती। नशेबाजों का शराब की दुकान पर जमघट रहता है। दुराचारी वेश्याओं के अड्डों के इर्द-गिर्द चक्कर काटते रहते हैं। जुआरियों को जुआरी और चोरों को चोर तलाशने, ताड़ने और दोस्ती करने में देर नहीं लगती।


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