29 वीं सदी की भवितव्यताएँ- 3 - क्या सृष्टि का अन्त सचमुच निकट है

November 1986

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

पशु तात्कालिक समस्याओं पर सोचता है। उसे न भविष्य की चिन्ता होती है और न परिवर्तनों से बचाव करने की- न विपन्नता के बीच सुविधा सोचने की क्षमता होती है। किन्तु मनुष्य को सृष्टा का सर्वोपरि उपहार दूरदर्शी बुद्धिमत्ता के रूप में मिला है। वह भविष्य की कल्पना कर सकता है। आज की परिस्थितियाँ कल क्या प्रतिफल उत्पन्न करेंगी? इसका अनुमान तर्क, तथ्य और अनुभव के आधार पर लगाया जा सकता है। मानवी सुरक्षा और प्रगति का बहुत कुछ आधार इस विशेषता पर ही निर्भर है। भविष्य के प्रति उत्सुकता का अनुमान इस आधार पर भी लगाया जाता है कि ज्योतिषी, भविष्य वक्ता हर किसी को आकर्षित करते हैं। समाचार पत्रों में राशि फल, भविष्य फल छपते रहते हैं। प्रस्तुत समस्याओं के संबंध में मनीषी वर्ग प्रायः इस विषय पर चर्चा करता रहता है कि भविष्य की समस्याएँ क्या हो सकती हैं? और उनके समाधान क्या निकल सकते हैं?

शीतयुद्ध और गरमयुद्ध दो प्रकार की लड़ाइयाँ होती हैं। इसमें शीतयुद्ध कम कष्ट कर और गरमयुद्ध देखने में भयंकर वीभत्स लगते हैं पर परिणाम दोनों के लगभग एक जैसे होते हैं। शीतयुद्ध को कैन्सर और गरम युद्ध को हृदयाघात कह सकते हैं। पर दोनों ही ऐसे होते हैं जो प्राण हरण करके रहें।

आज का शीतयुद्ध जनसंख्या का अनियंत्रित अभिवर्धन है। वह चक्रवृद्धि गति से बढ़ता है। अब से 10 हजार वर्ष पूर्व संसार भर में 25 लाख आबादी कूती जाती है। पर चक्रवृद्धि का चमत्कार तो देखिए इन दोनों 500 करोड़ मनुष्य इस धरती पर रहते हैं और रोकथाम करते हुए भी अगली शताब्दी में कम से कम दूनी आबादी हो जाने की संभावना है। जब आज के मनुष्य की दैनिक आवश्यकता पूरी नहीं हो पाती और महंगाई का बोझ औसत मनुष्य की कमर तोड़ता है तो जब आबादी दूनी हो जायगी तब स्थिति क्या होगी? इसकी भयावह कल्पना कर सकना किसी भी दूरदर्शी के लिए कठिन न होना चाहिए। हमें सर्वप्रथम इसी संकट का मुकाबला करना चाहिए। ‘सर्वप्रथम’ इसलिए कहा जा रहा है कि इसका समाधान जन सामान्य के हाथों है। लोग अपना चिन्तन बदल दें और व्यवहार में थोड़ा अन्तर करें तो इतने भर से विपत्ति की रोकथाम हो सकती है।

दौड़ती गाड़ी रुकने में कुछ देर लगती है। इस आधार पर दूनी जनसंख्या पहुँचने तक पूरी तरह ब्रेक न कसे जा सकें और विराम न मिले ऐसी आशंका है। यदि इतना बन पड़े तो भी संतोष की साँस ली जा सकती है और समुद्र पर तैरती खेती करके किसी हद तक समाधान सोचा जा सकता है। समुद्र में अभी भी जहाँ तहाँ ऐसे द्वीप हैं जिनमें भूमि की उर्वरता और पीने का पानी मिल सकता है। उनमें बसावट की अभी भी गुंजाइश है। तैरते उपनगर भी समुद्र तट के बड़े नगरों के इर्द गिर्द बसाये जा सकते हैं। आकाश में बस्ती बसाना तो क्लिष्ट कल्पना है पर इन प्रयोजनों के लिए समुद्र और भूमि के वीरान क्षेत्रों को उपजाऊ बनाने का रेगिस्तानों को नखलिस्तान बनाने का प्रयोग एक सीमा तक सफल हो सकता है। पर्वतों पर भी वृक्ष विकास के साथ-साथ आबादी बढ़ाने की कल्पना भी तथ्यहीन नहीं है। आपत्तिकाल में ऐसे ही उपायों से ठूँस ठाँस का प्रयोजन पूरा हो सकता है।

दूसरा गरम युद्ध है- तीसरे महायुद्ध का जिससे समूची मानव जाति आतंकित है। परमाणु युद्ध, विष गैसें तथा मृत्यु किरणें, उपग्रह आदि के मारक साधन जिस तेजी से बढ़ रहे हैं और उनका भण्डारण जिस विशाल परिमाण में हो रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि यह खेलने के खिलौने नहीं हैं। इतना विपुल धन और साधन इसके लिए लगाया जा रहा है, उसे सनक या अपव्यय नहीं माना जा रहा है। निर्माताओं का ख्याल है कि एक दिन वे शत्रु पक्ष पर इस जखीरे को अचानक उड़ेल देंगे। स्वयं बच जायेंगे और समूची धरती पर निष्कंटक राज्य करेंगे। समस्त संसार की जनशक्ति, धनशक्ति और कौशलशक्ति उनके हाथ में होगी। थल, नभ और जल पर उनका विशाल साम्राज्य स्थापित होगा।

पर यह योजना बनाने वाले यह भूल जाते हैं कि एक पक्षीय युद्ध नहीं हो सकता। विपक्षी भी हाथ पर हाथ रखे नहीं बैठा रहेगा। उभयपक्षीय प्रहारों से कोई भी जीतेगा नहीं। दोनों हारेंगे। युद्ध भले ही एक दिन चले पर उनके उपरान्त की समस्याएँ ऐसी होंगी, जिनका हजार वर्ष में भी सुलझना कठिन है। ऐसी दशा में आशंका तो यहाँ तक की जाती है कि यह धरती मनुष्यों के रहने योग्य ही न रहे। इस अमृत पिण्ड को विष पिण्ड बनकर रहना पड़े और जीवन कदाचित विषपायी जीवों भर के लिए शेष रहे।

किन्तु बारीकी से हलचलों पर दृष्टि लगाये हुए लोग बदलते तेवरों और बदलते पैंतरों को देख रहे हैं। संभवतः अणु युद्ध की विभीषिका एक दूसरे को डराते रहने के ही काम आयेगी। उसका उस रूप में प्रयोग न होगा। प्रचलित हथियार ही आधी दुनिया का कतर व्यौंत कर देने के लिए काफी हैं।

मूर्धन्य युद्धलिप्सु अगले गरम युद्ध में लेसर किरणों का उपयोग करने की बात सोच रहे हैं। यह मृत्यु किरणें अदृश्य रहती हैं, पर जिस क्षेत्र में पहुँचती हैं वहाँ सब कुछ जलाकर रख देती हैं। जलाना भी ऐसा जिसमें अग्नि की लपटें न उठें। लेसर किरणें प्राणियों के प्राण हरण करती हैं। वस्तुओं को निःसत्व कर देती हैं। वृक्ष वनस्पतियों को सुखा देती हैं। पानी को सुखा देती हैं और भी बहुत कुछ ऐसा कर देती हैं जिससे वस्तु या प्राणी की शकल तो बनी रहे पर उसके भीतर जीवन जैसी कोई वस्तु न रहे। चट्टान जैसी स्थिर भर रहे। लेसर किरणें उपग्रहों को गिरा सकती हैं, प्रक्षेपास्त्रों की दिशा मोड़ सकती हैं। वायुयानों को गिरने के लिए विवश कर सकती हैं। उनके विनाश स्तरीय प्रयोगों को मृत्यु किरण नाम दिया गया है। इस प्रहार में यह सुविधा है कि आक्रमण अदृश्य होता है, धुँआ नहीं उठता, विकिरण नहीं फैलता और अंतरिक्ष में पृथ्वी पर चढ़े हुए आवरण कवचों को क्षति पहुँचने का खतरा नहीं रहता। इसलिए अणुयुद्ध के स्थान पर लेसर युद्ध सरल पड़ता है। प्रथम आक्रमण कर्त्ता नफे में भी रहता है। उसे पृथ्वी से ऊपर फेंकने की अपेक्षा उपग्रहों के माध्यम से धरती के अमुक क्षेत्र में गिराना सरल पड़ता है। यही स्टार वार है। आकाश में प्लेटफार्म बनाने के लुभावने सपने दिखाकर वस्तुतः आकाश में मृत्यु किरणों के भण्डारण किये जा रहे हैं। इस प्रहार में तात्कालिक लाभ तो है कि शत्रु एक प्रकार से अपंग हो जाता है पर एक खतरा भी है कि आक्रान्ता भूमि या वस्तुएँ समस्या बन कर रह जाती हैं जो विकिरण सोख लेती हैं और संपर्क में आने वाले को अपनी चपेट में लेती हैं। उनसे कब तक बचा रहा जाय? फिर जीती हुई भूमि से क्या लाभ उठाया जाय? वह तो विजेता के लिए भी उलटी समस्या बन जाती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118