मेज गोविंदम् मूढ़मते

November 1986

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भगवान के सहस्र नाम “विष्णु सहस्र नाम” नामक स्तवन पुस्तिका में संकलित हैं। इसमें पहला नाम है- “विश्वम्।” यों विश्वम्भर, विश्वनाथ आदि नाम भी भगवान के ही हैं, पर उनसे द्वैत का बोध होता है। “विश्वम्” अद्वैत है। निराकार, क्षुब्ध-निरंजन आदि नामों में उस सत्ता के अस्तित्व का तो बोध है; पर स्वरूप का नाम, प्रतिमाओं के रूप में भगवान की स्थापना आदि में उनके अलंकारिक गुणों का ही विवेचन है, यथा- विष्णु की चार भुजा, चार दिशा, चार वर्ण, चार आश्रम का संकेत है। आयुध के रूप में सुदर्शन चक्र उनके महाकाल स्वरूप का संकेत है। पुष्प रूप में वे जहाँ वरदान देते हैं, वहाँ गदा प्रहार द्वारा आततायियों को प्रताड़ित भी करते हैं।

इसी प्रकार विष्णु की ही तरह ब्रह्मा, शिव, गणेश, सूर्य आदि की भी प्रतिमाएँ उनकी विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए गढ़ी गई हैं। वस्तुतः सर्वव्यापी सत्ता की कोई आकृति नहीं हो सकती। उसकी प्रकृति ही समग्र व्यवस्था जुटाती है।

फिर भगवान का दृश्य एवं प्रत्यक्ष रूप क्या हुआ? इसके उत्तर में “विश्व” शब्द का उल्लेख ही समीचीन है। उसके कण-कण में जो सत्ता समायी हुई है, उसे अशरीरी शक्ति के रूप में ही जाना जा सकता है। प्रतिमाएँ तो मनुष्य ने अपनी-अपनी भावना और कल्पना के आधार पर गढ़ी हैं। यदि वस्तुतः उसका कोई स्वरूप रहा होता, तो वह समस्त प्राणियों को एक ही जैसा दीखता। सूर्य सर्वत्र एक ही आकृति का है। उसे किसी धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, देश के आधार पर पृथकता के साथ निरूपित नहीं किया जा सकता।

दृश्य रूप में यदि भगवान की आकृति देखनी हो, तो वह विश्व ही हो सकता है। विश्व अर्थात् ब्रह्मांड और उसका छोटा रूप यह भूलोक भी। कृष्णावतार में अर्जुन और यशोदा को यही रूप दिखाया गया था। रामावतार के समय कौशल्या और काकभुसुण्डि ने यही रूप देखा। उन अलंकारिक आकृतियों को विराट ब्रह्म कहते हैं।

भगवान की उपासना का अर्थ है- विश्वात्मा के समीप बैठना। यह समीपता सब में अपने को और अपने में सब को देखने की भावना द्वारा ही संभव हो सकती है। इसका व्यावहारिक रूप यह है कि जैसा व्यवहार दूसरों से अपने लिए चाहते हैं, वैसा ही हम भी दूसरों के साथ करें। स्पष्ट है कि हम दूसरों से अपने प्रति सज्जनता, शालीनता, उदारता एवं सहयोग की आशा करते हैं। ऐसी दशा में यह भी आवश्यक हो जाता है कि हम भी दूसरों से वैसा ही मृदुल व्यवहार करें।

ईश्वर भक्ति का तात्पर्य भगवान की सेवा करना है। भजन करना ईश्वर प्राप्ति का उपयुक्त माध्यम है। ‘भजन’ शब्द संस्कृत की ‘भज्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है- सेवा। सेवा अर्थात् सहायता। भगवान अर्थात् विश्व को सुविकसित, समुन्नत बनाने के लिए प्रयत्न करना। यह प्रत्यक्ष व्यवहार हुआ। परोक्ष चेतना जगत में यही क्रिया सुसंस्कृति कही जा सकती है। संसार को प्रत्यक्षतः सुखी और उसकी भाव-चेतना को सुसंस्कृत बनाने का प्रयत्न करना सच्चे अर्थों में भजन कहा जा सकता है। मात्रा नाम रट से यह प्रयोजन पूरा नहीं होता।

सेवा में दोनों ही पक्ष आते हैं- संवर्धन भी और प्रताड़ना भी। माता अपने बच्चे को प्यार भी करती है और उसे सुखी बनाने में निरत भी रहती है, पर उद्दण्डता बरतने पर उसकी प्रताड़ना भी करती है और फोड़ा हो जाने पर डॉक्टर के पास पीड़ा भरा आपरेशन कराने के लिए भी ले जाती है।

गंदगी को हटाना एवं स्वच्छता को बढ़ाना एक ही तथ्य के दो पक्ष हैं। सत्प्रवृत्ति संवर्धन एवं दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन एक ही क्रिया की दो प्रक्रिया हैं। सेवा करना सुख बढ़ाना भी है और उन अनाचरों को निरस्त करना भी जो दुःख देते और पतन के गर्त में गिराते हैं। शैतान की अवहेलना और भगवान की उपासना एक ही बात है, यद्यपि यह दो क्रियाएँ एक-दूसरे से पृथक प्रकार की मालूम देती हैं। विश्व की सेवा और भगवान के भजन में कोई अन्तर नहीं है।


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