आगे बढ़ने से इन्कार (kahani)

November 1986

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

एक समय समुद्र की लहरों ने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया। आपसी मोह के कारण उनने गतिशीलता को वियोग और दुःख का जनक समझा। समुद्र ने काफी समझाने का प्रयास किया कि- “मिलन का आनन्द जड़ता में नहीं, गति के साथ जुड़ा है- अतः गतिशील बनो।” परन्तु भविष्य की अनिश्चितता की कल्पना लहरों को भयभीत किए दे रही थी। तभी कुछ आगे की गतिशील लहरों ने मुड़कर देखा और समझाया- “सहेली, हमें देखो, उद्गम से बिछुड़कर ही हम अनन्त की ओर जा रही हैं, अपने प्रियतम की महानता के अंतर्गत ही तो क्रीड़ा कल्लोल कर रही हैं- हम उससे बिछुड़ी कहाँ हैं। सीमित से असीम बनने में और अधिक आनंद है।”

इन गूढ़ रहस्यों को सुनकर सूर्य की किरणों ने भी समर्थन प्रकट किया और कहा कि- “हमें अपने प्रियतम की विशालता में विचरण करते हुए अब अधिक उल्लास प्राप्त हुआ है।” फूलों की सुगन्ध ने भी सिर हिलाते हुए कहा कि- “पुष्प की गरिमा को विस्तृत करने में हम बिछुड़न का नहीं, पुलकन का अनुभव करती हैं।

इन्द्र ने समुद्र का ध्यान तोड़ते हुए मेघ के वाहन पर विराजमान होने को कहा। भाप बनकर वरुण ने उस पर आसन जमाया और इन्द्र के इशारे पर सुदूर यात्रा पर चल पड़े। किसी ने समुद्र के इस वियोग पर दुःख प्रकट किया। परन्तु समुद्र ने कहा- “भद्रे! यह बिछुड़न नहीं, नवीनीकरण है। जीवन इसी का नाम है। गति का परित्याग करने पर तो मरण ही हाथ रह जाएगा।

लहर की आंखें खुल गईं और वह आगे बढ़ चली, अनन्त की यात्रा पर।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118