रहस्यमय सिद्धियाँ जो प्रत्यक्ष होती जा रही हैं।

November 1986

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आदिम काल के मनुष्य की न कोई भाषा थी न लिपि। बन्दरों की तरह अनगढ़ शब्द बोलकर वह अपनी बिरादरी वालों से तात्कालिक आवश्यकताओं के सम्बन्ध में साधारण-सा विचारों का आदान-प्रदान कर लेता था। पर प्रगति के लिए उसकी उत्कट अभिलाषा बनी रही। चेष्टा भी होती रही। इसका परिणाम हुआ उसने बहुत कुछ ऐसा सीखा और पाया जो अनादि काल से उसे उपलब्ध नहीं था। आग जलाने, पहिया बनाने, वनस्पति उगाने, पशु पालने, वस्त्र बुनने और निवास आच्छादन बनाने जैसे आविष्कारों में जब वह सफल हुआ तो माना गया कि देवों ने सुख सुविधा के अनेक साधन उस पर बरसा दिए।

इस प्रगतिशीलता पर विराम नहीं लगा। उसकी अग्रगामिता निरन्तर जारी रही। फलतः साहित्य, कला, संगीत, दर्शन, तर्क जैसे बौद्धिक और रेल, मोटर, तार, रेडियो जैसे विद्युत संचालित उपकरण बनाने का अवसर मिला। एक-एक करके प्रकृति के रहस्य खुले और मनुष्य क्रमशः अधिक कुशल, अधिक समर्थ बनता चला गया। वह गति अभी रुकी नहीं है। जल-थल मथ डालने के बाद वह अन्तरिक्ष पर अधिकार करने की फिराक में है। महा विनाश के परमाणु बम जैसे साधन तो बना लिए हैं। आत्मघाती नशों का अभ्यास कर लिया है। पर संतुलित सृजन का क्षेत्र अधूरा पड़ा है। उस क्षेत्र में श्रीमन्त ही लाभान्वित हो रहे हैं। सामान्य जनों की- पिछड़े हुओं की- प्रगति अभी भी रुकी हुई है।

प्रगति के अनेक क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण धारा अध्यात्म की भी है। सामान्य मनुष्य उपार्जन, विलास, वैभव एवं सुरक्षा के ही सरंजाम जुटाता रहता है। उसे दौलत की असीम प्यास है ताकि उस आधार पर मनचाही वस्तुयें खरीद सके।

यह रहस्य चिन्तन की गहराई में उतरने वालों के ही हाथ लगा है कि मानवी चेतना को सुगठित, सुनियोजित एवं समुन्नत बना लेने पर व्यक्तित्व में चार चाँद लगते हैं। वह प्रतिभावान बनता है एवं सज्जनता के चुम्बकत्व से अनेकों का स्नेह-सहयोग अपनी ओर आकर्षित करता है। लोक व्यवहार में प्रामाणिकता को ही सबसे बड़ी पूँजी माना गया है। जिसे सज्जनोचित व्यवहार आ गया- तत्परता तन्मयता का अभ्यास कर लिया, समझना चाहिए कि उसने सर्वतोमुखी उत्कर्ष का द्वार खोल लिया।

व्यक्तित्व निर्माण से आगे का चरण, रहस्य भरे अध्यात्म क्षेत्र की अधिक जानकारी प्राप्त करना और उस परिधि पर छाई हुई मूर्छना को जागृति में बदल देना है। यह साधना मार्ग है। इस पर चलते हुए सचेष्ट व्यक्ति उन क्षमताओं को जगाकर हस्तगत करता है, जो सर्व साधारण को आश्चर्य चकित करती हैं। उन चमत्कारों को लोग देवी देवताओं का वरदान उपहार मानते हैं और इसे अदृश्य शक्तियों की अनुकम्पा मानते हैं किन्तु तथ्यतः वह आत्म-जागरण का ही प्रतिफल होता है। बौद्धिक तथा भावनात्मक संपदाओं का केन्द्र बिन्दु अपना अन्तःकरण ही है। साधारण स्थिति में पड़ा रहने पर वह पेट-प्रजनन और प्रदर्शन की क्षुद्रताओं को पूरा करने के प्रयत्न में ही जुटा रहता है। प्रबल प्रयत्न करने पर भी यत्किंचित् ही हाथ लगता है।

अध्यात्म विज्ञान का क्षेत्र इतना सीमित नहीं है कि उससे प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का ही निर्माण, उपार्जन हो सके। वरन् इतना भी है कि गहन अन्तराल में छिपी हुई शक्तियों को जगाया और उभारा जा सके। उन बीज सूत्रों की कृषि करके विभूतियों की अच्छी खासी फसल उगाई जा सके।

मानवी चेतना की केन्द्र स्थली मस्तिष्क को माना जाता है। उसकी ऊपरी परत परिस्थिति को सुलझाने में कर्मरत रहती है। मध्यवर्ती परत को अचेतन कहते हैं। उससे शरीर और मन के विविध क्रिया एवं कलापों का सूत्र-संचालन सूक्ष्म रूप से होता रहता है। अन्तिम परिधि उच्चस्तरीय है। उसे प्रज्ञा, भूमा, दिव्यचेतना आदि नामों से जाना जाता है। इसी में ऋद्धि सिद्धियाँ सन्निहित रहतीं तथा साधना मार्ग अपनाने पर प्रस्फुटित भी होती हैं। शरीर अपने आप में एक उच्चस्तरीय बिजली घर है। उसकी साधना कर लेने पर अगणित वैज्ञानिक उपकरणों तथा अवलंबनों का समुच्चय एक ही स्थान पर मिल जाता है। अन्तराल में छिपे हुए यह शक्ति स्रोत जब गतिशील होते हैं तो मनुष्य देव मानव की सिद्ध पुरुष की- भूमिका निभाने लगता है। यह विभूतिमत्ता कहीं बाहर से नहीं आती अपितु भीतर से ही उगती है। साधना किसी देवता को फुसलाने या अनुगृहीत करके बदले में अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए नहीं की जाती। उनका उद्देश्य अन्तराल की उस तिजोरी की चाभी प्राप्त करना है जिसमें दिव्य-लोक की अनेकानेक रहस्यमयी सिद्धियों के भण्डार भरे पड़े हैं।

सिद्धि चर्चा सभी को आकर्षक और आश्चर्यजनक लगती है। वह प्रभावित एवं आकर्षित भी करती है। इसलिए आत्मिक प्रगति का लेखा जोखा लेते समय यह पूछा जाता है कि इस प्रयास से क्या विशेषतायें हस्तगत हुईं। धन न सही, वर्चस्व तो उपलब्ध होना ही चाहिए।

अणिमा, महिमा, लघिमा और अष्टसिद्धियों की बात पुरानी हो गई। पूर्व युगों में काय संरचना आकाश और वायु प्रधान होती थी। तब अभ्यासी के लिए अदृश्य हो जाना, विशाल या छद्म रूप बना लेना जैसी विशेषताओं का प्रदर्शन संभव था। पर अब तो युग के अनुरूप मानवी काया में पृथ्वी तथा जल तत्व की प्रधानता रह गई है। अन्न, जल पर ही वह आश्रित है, इसलिए प्राचीन काल जैसी दिव्य क्षमताओं का प्रदर्शन तो संभव नहीं रहा, पर सामान्य सिद्धियों का प्रदर्शन अभी भी हो सकता है होता रहता है।

प्रत्यक्षवादी विज्ञान-वेत्ताओं ने अकाट्य प्रमाण उदाहरणों के आधार पर यह पाया है कि थोड़े से अभ्यास से कुछ सिद्धियाँ मजबूत मनोबल वाले सहज ही अपने में विकसित कर सकते हैं। इनमें कुछ बहुचर्चित एवं सर्वविदित हैं। उन्हें अविश्वासी दृष्टि रखकर इस प्रकार कितनी ही कसौटियों पर कसा गया है ताकि उसमें छल प्रपंच की कहीं कोई गुंजाइश न रहे। इन सिद्धियों में चार प्रमुख हैं। (1) टेलीपैथी (2) अतीन्द्रिय दृष्टि (3) पूर्वज्ञान (4) साइको काइनोसिस जिसे विलक्षण अनुभूतियों का सम्मिश्रण भी कह सकते हैं।

टेलीपैथी- विचार संचरण है। एक स्थान पर बैठा हुआ व्यक्ति किसी दूरवासी के साथ मानसिक संपर्क मिला सकता है। उसके विचार जान सकता है और अपने विचारों से उसे अवगत करा सकता है। यह रेडियो टेलीविजन से मिलती जुलती पद्धति है। जो कार्य तार टेलीफोन जैसे यंत्रों की सहायता से होता है वह बिना किसी प्रत्यक्ष माध्यम के सम्पन्न होने लगता है। पति-पत्नी के - माँ-बच्चों के वात्सल्य में तो भावनाओं का आदान-प्रदान दूरी का व्यवधान रहते हुए भी चलता रहता है। इसी को किसी साधारण परिचित या अपरिचित पर भी प्रयोग किया जा सकता है। बड़े परिमाण में जन समुदाय पर एक विशेष प्रकार का मानसिक दबाव डालने के लिए ब्रेन वाशिंग का प्रयोग होता है। वैज्ञानिक सेज में इसे ब्रेन वाशिंग का नाम दिया जाता है। एक तरह की विचार धारा को दूसरे प्रकार की दिशा में उलट देना इसी प्रक्रिया के अंतर्गत आता है।


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