मृत्यु से भयभीत क्यों?

November 1986

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मृत्यु के समय अधिकतर लोग बहुत व्यथित और उद्विग्न पाये जाते हैं। इसका कारण शारीरिक नहीं मानसिक है। एक तो मनुष्य मोह, ममता के बन्धन में बेतरह जकड़ जाता है और उन्हें तोड़ते हुए कष्ट होता है। ढीली हथकड़ी-बेड़ी आसानी से कट जाती हैं पर यदि वे शरीर में बहुत कस कर बँधी हों तो काटने में कष्ट होगा। मेरा पैसा, मेरा घर, मेरा कुटुम्ब यह ‘मेरा’ जितना गहरा और कड़ा होगा उसका टूटना मानसिक दृष्टि से उतना ही भारी पड़ेगा। यदि पहले से ही मनुष्य यह सोचता रहे कि धन, सम्पदा, समाज या परमेश्वर की है। मैं उसको कार्यों में प्रयुक्त करने वाला कर्मचारी भर हूँ। स्वामित्व मेरा किसी पर नहीं, तो उसे वस्तुओं से मोह न बढ़ेगा और वे छूटते समय कष्ट न देंगी। इसी प्रकार सब जीवों को ईश्वर का अंश और पुत्र समझ कर स्वतन्त्र इकाई माना जाय। उनके साथ रास्ता चलते पथिक जैसा संयोग माना जाय। परिवार रूपी उद्यान का अपने को माली भर समझा जाय तो फिर कुटुंबियों से ममता न बढ़ेगी। स्नेह सद्भाव के निर्वाह और कर्त्तव्य पालन भर में संतोष और आनन्द होता रहेगा। उनके वियोग में वैसी पीड़ा न होगी जैसी आमतौर से अज्ञानग्रस्त लोगों को होती है।

बहुत से लोग अपने बाद की स्थिति पर विचार करते-करते मृत्यु से भयभीत होने लगते हैं। मेरे बाद न जाने क्या होगा? मेरे मर जाने पर बीबी बच्चे क्या करेंगे? कहाँ किसका आश्रय लेंगे? पता नहीं उन्हें क्या-क्या कष्ट उठाने पड़ेंगे? इस प्रकार की कल्पनायें निरर्थक हैं। ऐसे लोग अपने को ही बीबी बच्चों का विधाता समझते हैं। वे समझते हैं कि जब तक वे जिन्दा हैं, बीबी बच्चों के लिये स्वर्ग संचय कर रहे हैं। उनके न रहने के बाद वे यातनापूर्ण नरक में गिर जायेंगे। मानों उन सबकी जीवन गाड़ी उनकी जिन्दगी से चल रही है, जिसके खत्म होते ही सबका खेल खत्म हो जायेगा। दूसरों के लिये अपने को सब कुछ समझना दम्भ है। जब हम नहीं थे, संसार का सारा काम चल रहा था और जब नहीं रहेंगे तब भी सब काम चलना रहेगा। संसार का कोई काम किसी के न रहने से रुकता नहीं। यह बात सही है कि हमारा जीवन आश्रितों के लिए आवश्यक है। किन्तु इस आवश्यकता का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम अपने न रहने की कल्पना के साथ उनका जीवन जोड़कर कायरों की तरह मृत्यु भय से रोते कलपते रहें। अपने बाद की कल्पना के भयावह चित्र बनाने के बदले हमारी बुद्धिमानी इसी में है कि हम मरने से पूर्व ईमानदारी के साथ अपने आश्रितों की बहबूदी के लिए जो कुछ कर सकें करें। ऐसा करने से ही अपने बाद की चिन्ता की सार्थकता है, केवल कल्पना करते रहना मूर्खता ही होगी। मृत्यु को भय का कारण बनाने की अपेक्षा उसे अपने कर्मों का सजग प्रहरी बनाकर चलने वाले सदाशयी व्यक्ति यशस्वी जीवन के अधिकारी बनते हैं।

मृत्यु उतनी कष्टप्रद नहीं है, जितनी कि समझी जाती है। बीमारी आदि के कारण मरने से पूर्व कितना ही कष्ट क्यों न रहा हो, मरने का ठीक समय आने से पूर्व बेहोशी आने लगती है और पीड़ा के समस्त लक्षण विदा हो जाते हैं। मरने पर मनुष्य अनन्त शून्य में विलीन हो जाता है। जहाँ उसके सुखद स्वागत की तैयारी पहले से ही रहती है। आमतौर से बूढ़े लोग शान्ति और सन्तोषपूर्वक मरते हैं और जवानी में अधिक बेचैनी होती है यह उद्विग्नता उनकी महत्वकाँक्षाओं की अतृप्ति के कारण होती है। जिनके सपने अधूरे रहते हैं वे मरते समय उतने ही बेचैन पाये जाते हैं। मौत का डर भी कई बार मरने वालों को व्यथित करता है।

मृत्यु का भय अधिकतर सताता उन्हीं लोगों को है जो इस मानव जीवन का महत्व नहीं समझते और इसकी लम्बी अवधि को आलस्य, विलास एवं प्रमाद में बिता देते हैं और अपने आवश्यक कर्त्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों के प्रति ईमानदार नहीं रहते। कामों को अधूरा छोड़कर ढेर लगा लेने वाले जब देखते हैं कि उनकी जीवन अवधि की परिसमाप्ति निकट आ गई है और उनके तमाम काम अधूरे पड़े हैं, तब वे मृत्यु के भय से काँप उठते हैं। सोचते हैं मेरी जिन्दगी बढ़ जाती, मृत्यु का निरन्तर बढ़ा चला आ रहा अभियान रुक जाता तो मैं अपने काम पूरे कर लेता। किन्तु उनकी यह कामना पूरी नहीं हो पाती। मृत्यु आती है और अकर्मण्यता के फलस्वरूप उनकी चोटी पकड़ कर घसीट ले जाती है।

इसके विपरित जिसने अपने कर्त्तव्यों तथा उत्तर दायित्वों को रुचि एवं तत्परता से पूरा किया है, जीवन भर करने योग्य कार्यों की उपेक्षा नहीं की है, आयु के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग किया है, उसे मृत्यु से डरने का कोई कारण ही नहीं रह जाता। वह मृत्यु आने पर हँसता मुसकाता हुआ उसका स्वागत करता है और मृत्यु उससे सन्तुष्ट माता की तरह प्यार से गोद में उठाकर ले जाती और उन दिव्य स्थानों में पहुँचा देती है, जहाँ उसके कर्त्तव्य के पुरस्कार उसकी प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। अकर्तव्यता एवं अकर्मण्यता दोनों ही ऐसे दोष हैं, जो मृत्यु भय को न केवल जागृत ही रखते हैं, बल्कि बढ़ाकर भयानक से भयानकतर बना देते हैं। मृत्यु का भय कायर की वृत्ति है कर्मवीर तो उसे मित्र तथा माता मानकर किसी समय भी उसका स्वागत करने को तैयार रहा करते हैं।

यदि मृत्यु से भयभीत होने का स्वभाव स्थायी हो गया है और वह किसी प्रकार भी बदलते नहीं बनता तो भी उसका लाभ उठाया जा सकता है। जिस प्रकार शत्रु का भय सदैव सतर्क एवं सन्नद्ध बना देता है, सुरक्षा के प्रबन्धों तथा व्यवस्था के लिए सक्रिय रखता है उसी प्रकार मृत्यु को एक आकस्मिक आपत्ति समझकर सतर्क एवं सावधान हुआ जा सकता है। यह बात सत्य है कि मनुष्य शरीर छोड़ने से उतना नहीं डरता जितना ‘मृत्यु’ के बाद न जाने क्या गति होगी? इस विचार से भयभीत होता है। उसे आशंका रहती है कि मृत्यु के बाद उसे भयानक तथा अंधेरे लोकों में भटकना होगा। कीट-पतंगों की निकृष्ट योनियों में जाना होगा। बैल, भैंसा, ऊँट, घोड़ा, गधा आदि बनकर वह सब दण्ड भोगना होगा, वह सब यातना सहनी होगी, जिसे हम आज अपनी आँखों से उन्हें भोगते देख रहे हैं।

यदि यह आशंका मृत्यु भय को जन्म देती है- तब क्यों न ऐसे कर्मों, ऐसी गतिविधियों में संलग्न हो जाया जाये जिससे कि अँधेरे तथा अधम योनियों की आशंका ही दूर हो जाये। अधिक से अधिक जितना प्रकाश, जितना आलोक और जितना उजाला हम इकट्ठा कर सकें क्यों न कर लें। जिससे कि परगति में अपनी आत्मा के प्रकाश से अपना पथ प्रकाशित कर लें। इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं कि उजेले की प्राप्ति उज्ज्वल एवं आदर्श कर्मों से ही होती है। पुण्य, परमार्थ, परोपकार, परसेवा और पावन जीवन पद्धति से आत्मा में अक्षय प्रकाश के भण्डार भर जाते हैं। इससे पूर्व कि मृत्यु आये और अपमानपूर्वक चोटी पकड़ कर घसीट ले जाये क्यों न सत्पथ पर अग्रसर होकर प्रकाश का प्रबन्ध कर लिया जाये। क्यों न उस पुण्य प्रधान संबल को एकत्र कर लिया जाये जो हमारा, हमारी आत्मा के अनन्त एवं अगत पथ में सहायक बने।

मनुष्य की स्वाभाविक वृत्तियों में भय की गणना भी की गई है। किन्तु वह भय कायरता का नहीं, सतर्कता का लक्षण है। यों तो कोई भी मरना नहीं चाहता। मृत्यु से बचने का हर सम्भव उपाय किया करता है। सड़क पर चलते मोटर से बचना, नदी में नहाते समय डूबने से सावधान रहना, मृत्यु भय नहीं है। हिंस्र जन्तुओं, रोगों तथा शत्रुओं से जीवन रक्षा करने में यथासम्भव उपायों का करना स्वाभाविक है। निरर्थक एवं निरुद्देश्य मर जाना कोई वीरता नहीं, मूर्खता है। ‘हाय मैं मर जाऊँगा’ की भावना ही मृत्यु का वह भय है जो कायरता की कोटि में आता है। मनुष्य को “हाय मैं मर जाऊँगा” की हीन भावना के वशीभूत होकर कायरता का परिचय नहीं देना चाहिये।

‘हाय मर जाऊँगा’ की भावना में रो तड़प कर मृत्यु से बचा तो जा ही नहीं सकता। उल्टे यह भावना जीवन को बोझिल एवं भयावह बना देती है। मृत्यु से निरपेक्ष रह कर जीवन रक्षा का हर संभव उपाय करते हुए आ जाने पर साहसपूर्वक उसका सहर्ष आलिंगन करने में ही पुरुषार्थ की शोभा है। महान् मृत्यु के अवसर पर जीवन का मोह एक अश्रेयस्कर दुर्बलता है।

मृत्यु का भय उत्पन्न करने में परलोक की चिन्ता का बहुत बड़ा हाथ है। वस्तुतः लोगों का यह सोचते रहना कि मर जाने के बाद न जाने हमारा क्या होगा? हम कहाँ किस लोक अथवा योनि में भ्रमण करेंगे? न जाने हमारी सद्गति होगी अथवा अगति, मृत्यु भय को एक बड़ी सीमा तक बढ़ा देता है? परलोक की चिन्ता ठीक है। वह करनी भी चाहिये। किन्तु इस शुभ चिन्ता से मृत्यु के अशुभ भय का पैदा होना बड़ी ही असंगत तथा अस्वाभाविक बात है। फिर भी परलोक की चिन्ता से लोगों में मृत्यु का भय उत्पन्न होता है। इसका एकमात्र कारण लोक को बिगाड़ कर चलना है। परलोक का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। परलोक इस लोक की ही परिणति है। जिस प्रकार का हमारा लोक होगा हमारे लिये उसी प्रकार के परलोक की रचना होगी। यदि हमने अपने आलस्य, अकर्म, अकर्तव्य अथवा अनीति अत्याचार से अपने लोक को दग्ध कर लिया है और ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, काम, क्रोध, मोह आदि विकारों तथा वासनाओं से विषैला बना लिया है तो निश्चय ही उसी के अनुसार हमें चलते हुए लोकों को साकार करने पर विवश होना ही होगा। यदि हम जानते हुये भी अपने कर्मों से पतित परलोकों की रचना के लिये लोक में नींव रख रहे हैं तो मृत्यु का भय हमें सताएगा ही, क्योंकि हम जानते हैं कि जो कुछ हम कर रहे हैं, मृत्यु के उपरान्त उसका दण्ड भोगना ही है और इसीलिये मृत्यु की कल्पना आते ही भय से सिहर उठते हैं।

इसके विपरीत यदि हम लोक को परलोक का आधार मानकर उसे सजाने, सँवारने और सुन्दर बनाने के शुभ प्रयत्नों को ईमानदारी से करते रहें, तो मृत्यु कल्पना हमें विभोर करती रहे, क्योंकि हम जानते हैं कि हम जो कुछ शिव तथा सुन्दर कर रहे हैं। वह हमारे लिये मंगलमय परलोक की रचना कर रहा है जिसको हम मृत्यु के उपरान्त पुरस्कार के रूप में पायेंगे।

मनुष्य का विचार सान्निध्य भी मृत्यु के विषय में भय अभय का कारण होता है। जिसकी चिन्तन-धारा जितनी अधिक जीवन के समीप रहेगी वह उतना ही कम मृत्यु से डरेगा और जिसके विचार जितना अधिक मृत्यु का चिन्तन करेंगे वह उतना ही उससे भयभीत रहेगा। मृत्यू का चिन्तन क्या करना? वह अपने समय पर आयेगी, आती रहेगी। उसका विचार छोड़कर मनुष्य को जीवन की आराधना में लगा रहना चाहिये। चिन्तन का विषय जीवन है, मृत्यु नहीं। मृत्यु का चिन्तन करने से जो जीवनी-शक्ति का ह्रास होता है, जिससे मृत्यु का भय स्थायी रूप से सूक्ष्म में बस जाया करता है। ऐसी भय पूर्ण स्थिति में कर्त्तव्यों का पालन यथाविधि नहीं हो पाता जो स्वयं एक बड़ा दुःखद प्रसंग होता है। मनुष्य जब ठीक प्रकार से अपने कर्त्तव्यों में लगा रहता है, मृत्यु का भय उसके पास नहीं फटकने पाता। कर्त्तव्यों की आपूर्ति इस विचार के साथ मृत्यु का भय लाती है कि यह नहीं कर पाया, वह करने को रह गया है। सारा जीवन बेकार जा रहा है। यों ही दिन गुजर जायेंगे और एक दिन मृत्यु के मुख में चला जाना होगा। मनुष्य अपने स्थिति के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन तत्परता से करता रहे तो भी मृत्यु का भय उसे नहीं सताने पायेगा। फिर वह कर्तव्य छोटे हों अथवा बड़े, साधारण हों अथवा असाधारण, कर्तव्यहीन, अकर्मण्यता तो साक्षात मृत्यु ही कही गई है। ऐसी मृत्यु से तो सार्थक जीवन जीकर बंधनमुक्त होना एक सौभाग्य समझना चाहिए।

मनुष्य का विचार सान्निध्य भी मृत्यु के विषय में भय अभय का कारण होता है। जिसकी चिन्तन-धारा जितनी अधिक जीवन के समीप रहेगी वह उतना ही कम मृत्यु से डरेगा और जिसके विचार जितना अधिक मृत्यु का चिन्तन करेंगे वह उतना ही उससे भयभीत रहेगा। मृत्यु का चिन्तन क्या करना? वह अपने समय पर आयेगी, आती रहेगी। उसका विचार छोड़कर मनुष्य को जीवन की आराधना में लगा रहना चाहिये। चिन्तन का विषय जीवन है, मृत्यु नहीं। मृत्यु का चिन्तन करने से जो जीवनी-शक्ति का ह्रास होता है, जिससे मृत्यु का भय स्थायी रूप से सूक्ष्म में बस जाया करता है। ऐसी भय पूर्ण स्थिति में कर्त्तव्यों का पालन यथाविधि नहीं हो पाता जो स्वयं एका बड़ा दुःखद प्रसंग होता है। मनुष्य जब ठीक प्रकार से अपने कर्त्तव्यों में लगा रहता है, मृत्यु का भय उसके पास नहीं फटकने पाता। कर्त्तव्यों की आपूर्ति इस विचार के साथ मृत्यु का भय लाती है कि यह नहीं कर पाया, वह करने को रह गया है। सारा जीवन बेकार जा रहा है। यों ही दिन गुजर जायेंगे और एक दिन मृत्यु के मुख में चला जाना होगा। मनुष्य अपने स्थिति के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन तत्परता से करता रहे तो भी मृत्यु का भय उसे नहीं सताने पायेगा। फिर वह कर्तव्य छोटे हों अथवा बड़े, साधारण हों अथवा असाधारण, कर्तव्यहीन, अकर्मण्यता तो साक्षात मृत्यु ही कही गई है। ऐसी मृत्यु से तो सार्थक जीवन जीकर बंधनमुक्त होना एक सौभाग्य समझना चाहिए।


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