एक व्यक्ति कुछ धन लेकर उपहार में मित्र को देने के लिए चला। रात्रि बहुत हो गई। सभी सोये हुए थे। मित्र ने दरवाजा खटखटाया अन्दर से आवाज आयी- कौन! उत्तर में आगन्तुक ने कहा- मैं। उलटकर उसने भी पूछा बात कौन कर रहा है? उत्तर मिला मैं। इस प्रकार दोनों ओर से कई बार ‘मैं’ कहा जाता रहा। इससे संदेह बढ़ा और दरवाजा नहीं खुला। मित्र रात भर बाहर बैठा रहा। सवेरे लौटने लगा तो दरवाजा भी खुला गया। रात को दरवाजा न खुलने का कारण दोनों ने ही समझा, कि “मैं” ही प्रधान बाधा रही।
लोभ-मोह– संघर्ष पाप की जड़ यह “मैं” ही है। अहन्ता हर प्रगति द्वार के दरवाजे बन्द करती है।