अपनों से अपनी बात

November 1986

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इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग रह नहीं गया है

“अखण्ड-ज्योति” पत्रिका पाठकों के हितों को प्रधानता देते हुए प्रकाशित होती रही है। उसके हर पृष्ठ पर गुरुदेव की अमृतवाणी लेखनी के द्वारा इस प्रकार लिखी जाती है कि अर्धमृतकों और अर्धमूर्च्छितों में भी नव जागरण का- नवजीवन का- संचार होता रहे। यही कारण है कि साज सज्जा से रहित होने पर भी उसे दो लाख पाठक मँगाते व पढ़ते हैं। प्रत्येक पाठक न्यूनतम दस को पढ़ाता है, इस प्रकार यह संख्या 10 लाख तक जा पहुँचती है।

पत्रिका का मूल्य निर्धारित करते समय एक ही बात का ध्यान रखा जाता है कि लागत मात्र ही चन्दा वसूल किया जाय। उसे “नो प्रॉफिट नो लॉस” के सिद्धान्त पर चलाया जाता है। कागज, छपाई, बाइंडिंग, डिजाइनें, पोस्टेज इत्यादि का पैसा जोड़कर जितना बनता है, उतना ही मूल्य रखा जाता है। इसी नीति के आधार पर उसे अब तक चलाया जाता रहा है और भविष्य में भी इसी नीति को पूरी ईमानदारी के साथ अपनाये रहा जाएगा।

विगत तीन वर्षों में मुद्रण सामग्री में असाधारण वृद्धि हुई है। न्यूजप्रिण्ट की कीमतें बड़ी तेजी से बढ़ी हैं। कागज के साथ छपाई, स्याही, पोस्टेज आदि सभी में चालीस से पचास प्रतिशत तक वृद्धि हुई है। तद्नुसार अधिकाँश पत्र-पत्रिकाओं ने उनके मूल्य बढ़ा दिये हैं। पर अखण्ड ज्योति इन वर्षों में यही प्रतीक्षा करती रही कि यदि लागत में थोड़ा घाटा आता है तो भी उसे सहकर मूल्य यथावत् बनाये रहा जाय। इसी प्रतीक्षा काल में प्रायः एक लाख का घाटा हो गया। बाहर की यह राशि अभी चुकाना शेष है।

अन्य पत्रिकाएँ दूसरी प्रकार अपने घाटे पूरे कर लेती हैं। उनमें चालीस प्रतिशत स्थान विज्ञापनों के लिए सुरक्षित रहता है। महँगाई बढ़ते ही विज्ञापन रेट बढ़ा देते हैं। वार्षिक मूल्य भी बढ़ा देते हैं। कुछ पत्रिकाएँ निकालने वाली संस्थाओं का खर्च दान-दक्षिणा के आधार पर चलता है। पर अखण्ड-ज्योति के पास इनमें से एक भी साधन नहीं है। उसे ग्राहकों से वसूल होने वाले चन्दे से ही अपना संतुलन बिठाना पड़ता है।

एक मोटी दृष्टि आज के दैनिक, साप्ताहिक, मासिक पत्र-पत्रिकाओं पर डालें तो पाते हैं कि मूल्यों में 50 प्रतिशत से भी अधिक वृद्धि हुई है। दैनिक जनसत्ता जहाँ नवम्बर 84 में 60 पैसे थी, वहाँ नवम्बर 85 में 70 पैसा एवं अब 80 पैसे हो गयी है। दैनिक हिन्दुस्तान दिसम्बर 84 तक 60 पैसे प्रति कॉपी था। मार्च 85 में यह 64 पैसे, मई 86 में 70 पैसे व अब सितम्बर में 80 पैसे हो गया है। नवभारत टाइम्स भी 60 पैसे से बढ़कर मई 86 में 70 पैसे व अब 80 पैसे का है। साप्ताहिक हिन्दुस्तान जहाँ 84 अंत तक 2.50 प्रति कॉपी था, वहाँ मई 85 में 3.50 एवं अब 4.00 प्रति कॉपी है। धर्मयुग का 1984 में 3.00 एक प्रति का मूल्य था, वह दिसंबर 85 में 4.00 एवं अप्रैल 83 में 5.00 हो गया। टाइम्स ऑफ इण्डिया नवम्बर 84 में 80 पैसे, मार्च 86 में 90 पैसे एवं सितम्बर 86 में 1/प्रति कॉपी है। इंडियन एक्सप्रेस भी अब 60 पैसे से बढ़कर 1/ प्रति कॉपी हो गया है। हिन्दुस्तान टाइम्स मार्च 84 में 80, जुलाई 86 में 90 पैसे व अब 1/प्रति कॉपी है। सर्वोत्तम एवं रीडर्स डायजेस्ट की कीमतें तो देखते-देखते 6/ व 8/ से बढ़कर क्रमशः 9/ एवं 12/ मासिक तक जा पहुंची हैं। कादम्बिनी पत्रिका अप्रैल 84 में 3.50 की थी जो अब अप्रैल से 4/ प्रति कॉपी है। नवनीत 1984 में 3/प्रति कॉपी था, 1987-76 में 6.75/ हो गया है। ज्ञातव्य है कि ये सभी पत्रिकाएं विज्ञापन लेती हैं जबकि ऐसा प्रावधान अखण्ड-ज्योति पत्रिका के साथ नहीं है, जो ऐसी ही स्थिति में पचास वर्षों से छपती आ रही है। कल्याण जैसी धार्मिक पत्रिका का वार्षिक मूल्य अब 60 रुपये है जबकि यही पत्रिका- 1983-84 तक मात्र 20/मूल्य में प्रकाशित होती रही है।

अखण्ड-ज्योति का वार्षिक चन्दा बढ़ाने की बात पिछले तीन वर्षों से हर साल सोची जाती रही है पर वैसा कदम संकोचवश उठ ही नहीं सका। मँगाने वाले परिजनों को सीमित आजीविका में ही घर खर्च चलाने की व्यवस्था बनानी पड़ती है। वे निर्वाह के आवश्यक साधनों को छोड़कर अन्य प्रसंगों में खर्च की बढ़ोत्तरी करने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसी दशा में उन पर पत्रिका की मूल्य अभिवृद्धि का दबाव डालने का किसी तरह मन नहीं होता। कई अंकों में कुछ पृष्ठ घटाकर भी संतुलन बनाने की बात सोची गई पर उससे भी बात बनी नहीं। पत्रिका का कलेवर, सौंदर्य, पाठ्य सामग्री का स्तर गिराने की अपेक्षा तो उसे बन्द कर देना अच्छा। यह सोचकर पत्रिका का पूर्व इतिहास और आत्म गौरव यही कहता रहा कि जिसे अपने ढंग की अद्भुत और अनोखी पत्रिका माना जाता रहा है उसे घटिया श्रेणी की बनाकर रख देना किसी भी परिस्थिति में उचित न होगा। इस प्रकार की कटौती करने के पक्ष में पाठक भी न थे। उनसे भी पूछताछ कर ली गई है।

अन्ततः सब कुछ सोच विचारने के बाद चन्दा बढ़ाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग रह नहीं गया है। इसका विकल्प पत्रिका को घटिया बना देना, कलेवर क्षीण कर देना अथवा बंद कर देना ही हो सकता है। यदि इस मार्ग को न अपनाना हो तो उपाय एक ही रह जाता है कि लागत के अनुरूप चन्दा बढ़ा दिया जाय। अनेक दृष्टिकोणों से विचार करने के उपरान्त इसी बिन्दु पर ठहरना पड़ता है। उसका मूल्य अब बढ़ाया जा रहा है एवं बीस रुपया वार्षिक के स्थान पर पच्चीस रुपया किया जा रहा है।

यह अखण्ड-ज्योति का पचासवाँ वर्ष है। इसे स्वर्ण जयन्ती वर्ष के रूप में उद्घोषित किया गया है। तद्नुसार निश्चय किया गया है कि उसे हर दृष्टि से अब की अपेक्षा और भी अधिक उच्चस्तरीय बनाया जाय। पाठ्य सामग्री के रूप में भी यही किया जा रहा है और कलेवर के संबंध में भी। कलेवर सुनहरा छपेगा। फोटोटाइप सेटिंग से छपाई तो अगस्त 86 से ही आरम्भ कर दी गई थी। अब कतिपय लेखों के साथ विषय वस्तु को समझाने वाले फोटोग्राफ भी होंगे। जनवरी का अंक “कुण्डलिनी साधना” अंक होगा। इसमें विगत तीन वर्षों की गुरुदेव की कठोर सावित्री साधना का स्वरूप, आधार और विधान का दिग्दर्शन रहेगा। फरवरी अंक को “इक्कीसवीं सदी” अंक के रूप में निकाला जा रहा है, जिसमें उस भवितव्यता का विवरण रहेगा जो अगली शताब्दी में घटित होकर रहेगा। इसे ऐसी भविष्यवाणी का समुच्चय कहा जा सकता है, जिसके घटित होने की संभावना पर अविश्वास नहीं किया जा सकता। इसके उपरान्त भी पाठ्य सामग्री से लेकर पृष्ठ संख्या और कलेवर में जो कुछ अभिवृद्धि संभव होगी, उसमें कुछ उठा न रखा जाएगा।

पिछला घाटा अभी चुकाना शेष है। इसके लिए थोक पत्रिकाएँ मँगाने वाले जिन सज्जनों के नाम उधारी निकल रही है, उन्हें इन्हीं दिनों चुकाने का अनुरोध किया जा रहा है और कहा जा रहा है कि हिसाब नकद का ही रखें। किसी ग्राहक पर चन्दा उधार न करें और उसे फिर कभी दे देने की छूट देकर वसूली में विलम्ब न होने दें। जो वसूल होता जाय उसे तुरन्त मथुरा भेजा जाय। उधारी मथुरा की जिम्मेदारी पर नहीं, अपनी निजी जिम्मेदारी पर ही रखनी चाहिए। पत्रिका पर जो इन दिनों कर्ज है उसमें अधिकाँश उधारी का ही है।

एक विशेष अनुरोध यह है कि इस स्वर्ण जयंती वर्ष में अखण्ड-ज्योति के रूप में युग चेतना को अधिकाधिक व्यापक विस्तृत करने में इस बार पूरी शक्ति झोंक दी जाय। दो-दो की टोली बनाकर अपने प्रभाव क्षेत्र के सभी विचारशील परिजनों के पास जाया जाय और उन्हें पत्रिका के प्रतिपादनों का महत्त्व समझाते हुए कहा जाय कि उसमें जीवनक्रम का कायाकल्प करने की क्षमता है। चिन्तन चरित्र और व्यवहार को आदर्शवादी बनाने की सामर्थ्य है। अध्यात्म तत्वज्ञान का विज्ञान, तर्क, तथ्य समेह ऐसा प्रतिपादन अन्यत्र कदाचित ही देखने को मिलते। आत्मा को समर्थता देने वाले इस अमृतोपम आहार को उपलब्ध किया ही जाना चाहिए।

आशा की गई है कि स्वर्ण जयन्ती वर्ष पर मनाई जा रही पूर्णाहुति के उपलक्ष में पत्रिका के नये ग्राहकों के रूप में वसोधारा ज्ञान यज्ञ में अवश्य डाली जाएगी। वस्तुतः घर-परिवार में पत्रिका का प्रवेश ऐसा है कि जिसके लिए रोटी में कटौती करके भी आत्मा के लिए परम श्रेयस्कर इस कल्याणकारक भोजन को ग्रहण किया ही जाना चाहिए।

स्मरण रहे अब अखण्ड-ज्योति का चन्दा पच्चीस रुपया वार्षिक होगा और वही वसूला जाना चाहिए। इस हेतु पत्रिका में रसीदें लगाई जा रही हैं- और अधिक आवश्यकता होने पर संस्थान से मँगाई जा सकती हैं।


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