यह वह समय था जब भारत के तत्त्वज्ञान का आलोक विश्व के कोने-कोने में फैला हुआ था। दूर देशों से यात्री आते और भारत से ज्ञान ले जाकर अपने देशवासियों का जीवन उन्नतिशील बनाते। इसी क्रम में लगभग दो हजार वर्ष पूर्व एक बौद्ध मतावलम्बी सन्त ज्ञानार्जन के लिये भारत आया। उसने अनेक विद्यापीठ और विश्वविद्यालयों में रहकर भारतीय दर्शन शास्त्र का अध्ययन पूरा करने के बाद वह अनेक दुर्लभ ग्रन्थों की पाण्डुलिपियाँ अपने साथ लेकर अपने देश चीन लौट चला। वह नाव द्वारा जलमार्ग से अपने देश को वापस जा रहा था। लगभग आधी यात्रा के बाद तूफान आ गया। नाव में पानी भर गया और वह बोझिल होकर बैठने लगी।
उस सन्त के साथ वाले भारतीय छात्र उस आसन्न अन्त के समय भी अधीर न होकर ज्ञानग्रन्थों तथा विद्वान अतिथि की रक्षा का उपाय सोचने लगे। पूछने पर मल्लाह ने बतलाया-यदि एक-आध को छोड़कर बाकी सब लोग नाव को रिक्त कर दे तो नाव पार लग सकती है। बस फिर क्या था, सारे छात्रों ने सिन्धु के अथाह जल में कूदकर आत्मबलिदान कर दिया।
समाज, देश और संस्कृति के ऐसे साधक ही जनमानस के सच्चे प्रेरणा स्रोत हैं। इनकी परमार्थनिष्ठा से ही समाज और संस्कृति सुविकसित होते, फूलते और फलते हैं।