अपनों से अपनी बात-1 - प्रखर साधना वर्ष की युग वसन्त से शानदार शुरुआत

February 1999

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वसन्त पर्व अब मात्र अखण्ड ज्योति परिवार ही नहीं, समग्र विश्व गायत्री परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए प्रकाश-पर्व प्रेरणा-पर्व बन गया है। इसे न केवल मिशन के सूत्र-संचालक का, उनकी बहुमुखी जनकल्याणकारी प्रवृत्तियों का जन्मदिन माना जाता रहा व उसी दृष्टि से मनाया जाता रहा है, बल्कि इस परिवार का प्रत्येक घटक अपने भावनात्मक उत्कर्ष का अभिनव पर्व भी इसे मानता और मनाता है। इस वर्ष का वसन्त पर्व भी ऐसी ही ऐतिहासिक वेला में सारे भारत व विश्व में मनाया गया। युगान्तरकारी दिव्य प्रेरणाएँ जिस दिन धरती पर बरसती हैं, उसके विषय में परिवार के संस्थापक-कुलपति आज से

हर नैष्ठिक साधक-संगठन को व्यक्तिगत दायित्वों का वितरण तीस वर्ष पूर्व अपनी लेखनी से अपनों से अपनी बात के क्रम में लिख गए थे कि यह युगपरिवर्तन के स्वरूप को स्पष्ट करने वाला ऐतिहासिक वसन्त होगा। मात्र संयोग ही नहीं है कि 1969 में भी 22 जनवरी को वसन्त पंचमी थी व 1999 की इस संधिवेला में भी 22 जनवरी को ही वसन्त पर्व आया। दृष्टा स्तर की अवतारी सत्ताएँ भविष्य के गर्भ में झाँक कर पूर्व से ही वे सभी घोषणाएँ कर जाती हैं, जिनकी प्रतीक्षा सारा संसार कर रहा होता है। उस समय संभवतः कई परिजन इस घोषणा को समझ नहीं पाए होंगे, किंतु अब क्रमशः सभी को सभी कुछ स्पष्ट दृष्टिगोचर होता चला जा रहा है। सतयुग की संभावना अब कोरी कल्पना नहीं समझी जा रही, वरन् नवनिर्माण के बहुमुखी प्रयास जिस तेजी से अग्रगामी हो रहे हैं, उन्हें देखते हुए यह माना जा रहा है कि धरती पर स्वर्ग का अवतरण और मनुष्य में देवत्व का उदय अगले दिनों एक मूर्तिमान् तथ्य बनकर प्रस्तुत होगा।

प्रस्तुत वसन्त पर्व से अखिल विश्व गायत्री परिवार के द्वारा प्रखर साधना वर्ष की शुरुआत की गयी है। 22 जनवरी, 1999 से आरंभ हुआ यह उपक्रम 10 फरवरी, 2000(वसंत पंचमी) तक चलता रहेगा। इस वसन्त की ही पावन वेला में एक साथ प्रायः चौबीस हजार स्थानों से एक साथ अखण्ड गायत्री जप-उज्ज्वल भविष्य की प्रार्थना का शुभारम्भ होना अपने आप में एक इतनी युग परिवर्तनकारी घटना है, जिसके परिणाम आने वाले दो वर्षों में सभी परिजन अपने उन्हीं चर्मचक्षुओं से देख सकेंगे। ढाई दिवसीय अखण्ड जप प्रधान साधनात्मक आयोजनों की श्रृंखला इस वसन्त से सारे भारत व विश्व के सभी केन्द्रों से आरंभ हो गयी। इसी के विषय में साधना प्रशिक्षण हेतु प्रायः 48 स्थानों का चयन कर यह प्रक्रिया एक दिसंबर, 1998 से आरंभ की गयी थी। विराट गायत्री परिवार रूपी संगठन की साधना की धुरी पर स्थापना हेतु एक अभूतपूर्व पुरुषार्थ इस प्रकार प्रायः एक लाख संकल्पित कार्यकर्ताओं के शिक्षण के रूप में वसंत की पूर्व वेला तक संपन्न हो चुका है। प्रायः पचास से अधिक स्थानों पर यह प्रशिक्षण कार्यक्रम संपन्न हुआ है एवं औसतन भागीदारी प्रत्येक स्थान पर दो से तीन हजार संकल्पित समयदानी साधक स्तर के नैष्ठिकों की रही है। इस प्रकार इस विराट मंथन से प्रायः एक लाख से अधिक साधक-संगठन-कर्ताओं के माध्यम से साधना वर्ष का शुभारम्भ होना युगसंधि महापुरश्चरण के अंतिम चरण की एक महत्वपूर्ण घटना कही जा सकती है। एक प्रकार से यह नवयुग की गंगोत्री द्वारा संगठन के निमित्त हर नैष्ठिक कार्यकर्ता को विकेन्द्रित कर दी गयी व्यक्तिगत जिम्मेदारी है, जिसे उसे साधनात्मक स्तर पर अपने निजी जीवन में व आराधनात्मक स्तर पर समाज परिकर में संपन्न करना है।

परमपूज्य गुरुदेव का कथन था कि चौबीस-चौबीस लक्ष के चौबीस वर्ष के चौबीस महापुरश्चरणों का उनका तप तो एक जमा पूँजी के रूप में ‘फिक्स्डडिपॉजिट’ की तरह सुरक्षित रखा है। इसे उनकी सूक्ष्म व कारण सत्ता द्वारा युगपरिवर्तन के निमित्त ही नियोजित किया जाना है। घर में बड़ों को चिन्ता रहती है, अतः बचत करते रहते हैं व संतानों के लिए सुरक्षित निधि रख जाते हैं। यही बच्चों के विवाह, बन रहे निर्माणों आदि में काम आती है। लगभग उसी स्तर की चिंता इस परिवार के कुलपति, संरक्षक, अभिभावक परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी को रही होगी। इसी कारण वे अपने जप की जमा-पूँजी का तप अभी तक सुरक्षित रख उसका पुण्य युग-परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण व भारी जिम्मेदारी वाले कार्य हेतु नियोजित कर गए। शाँतिकुँज-गायत्री तपोभूमि के निर्माणों से लेकर सारे भारत व विश्व में फैले विराट विश्व गायत्री परिवार का जो विस्तार है, वह तो गुरुसत्ता के दैनन्दिन तप एवं उनके द्वारा आरंभ किये गए साधना महापुरश्चरणों की ऊर्जा का प्रतिफल ही कहा जा सकता है। जब गोवर्धन उठाया जा रहा था, तब भी श्रीकृष्ण ने सभी ग्वाल-बालों की लाठी अपनी छोटी उँगली के साथ-साथ लगवायी थी। सभी समझ रहे थे कि गोवर्धन उनकी लाठी पर टिका है, किंतु उन्हें कृष्ण-कन्हैया ने अहसास करा दिया कि यह वस्तुतः टिका भागवत् संकल्प पर ही है, वे तो मात्र श्रेय के अधिकारी बन रहे हैं। ठीक इसी तरह प्रस्तुत पुरुषार्थ में हम सबको साधक स्तर की वरीयता दिलाने हेतु, सुपात्र बनाने, श्रेय दिलाने यह भागवत् मुहूर्त आया है। युग-परिवर्तन का कार्य तो महाभारत में कौरवों को मारने की तरह भगवान श्रीकृष्ण ने पहले ही संपन्न कर दिया है- जो भी कुछ निर्माण होना है- उसके लिए विराट तप का पुण्य पूर्व से ही नियोजित है, हमें तो मात्र श्रेय भर लेना है। यदि इसमें भी कृपणता बरत गए तो फिर हमसे बड़ा अभागा कोई नहीं होगा।

परमपूज्य गुरुदेव ने अखण्ड ज्योति जुलाई 1989 में लिखा है- “मनुष्य की अपनी विचारणा, क्षमता, लगन, हिम्मत, उमंग और पुरुषार्थ परायणता की महत्ता भी कम नहीं। इन मानसिक विभूतियों के जुड़ जाने पर उसकी सामान्य दीखने वाली क्रिया-प्रक्रिया भी असामान्य स्तर की बन जाती है और दैवी विभूतियों के समकक्ष कार्य करने लगती है। फिर भी उनकी समय-सीमा निर्धारित है और सफलता का भी एक मापदण्ड है। किंतु यदि अदृश्य प्रगति प्रवाह की इच्छाशक्ति उसके साथ जुड़ जाय तो परिवर्तन इतनी तेजी के साथ होता है कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। सहस्राब्दियों में बन पड़ने वाले काम दशाब्दियों में, वर्षों-महीनों में सम्पन्न होने लगते हैं। यह अदृश्य उपक्रम अनायास ही नहीं, किसी विशेष योजना एवं प्रेरणा के अंतर्गत होता है। उसके पीछे अव्यवस्था को हटाकर व्यवस्था बनाने का लक्ष्य ही सन्निहित रहता है।”

वे आगे लिखते हैं-इक्कीसवीं सदी की शुभ संभावनाएँ हरी दूब की तरह अपनी उगती पत्तियों में दीख पड़ने के स्तर तक पहुँच रही हैं। प्रतिभा परिष्कार की सामयिक आवश्यकता लोगों द्वारा स्वेच्छापूर्वक अपनाये जाने में आनाकानी करने पर भी वसन्त ऋतु के पुष्प-पल्लवों की तरह अनायास ही अपने वैभव का परिचय देती दीखती है। भगीरथ की, सप्तऋषियों की, बुद्ध, शंकर, दयानन्द, विवेकानन्द, गाँधी, विनोबा की कथाएँ अब कभी प्रत्यक्ष बनकर सामने आ सकेंगी या नहीं, इस शंका-आशंका से ग्रसित होते हुए भी नियति की परिवर्तन-प्रत्यावर्तन की क्षमता का समापन हो जाने जैसा विश्वास नहीं किया जा सकता।

इसमें ज्वार-भाटों के उतार-चढ़ाव अपने कीर्तिमान स्थापित करने के लिए आतुर हो रहे हैं। इस पर अविश्वासियों को भी विश्वास करने हेतु बाधित होना पड़ेगा। प्रत्यक्ष को असंभव मानते रहने की हठधर्मिता कितने दिन टिक सकेगी?” (अखण्ड ज्योति जुलाई, 1989 पृ. 58-59)

ऊपर वर्णित पंक्तियाँ स्वयं सब कुछ स्पष्ट कह रही है। हम आज जिस स्थिति में आ खड़े हुए हैं, यह विश्व-वसुधा के भाग्य को नए सिरे से लिखे जाने की घड़ी कही जा सकती है। ऐसे में कोई भी पाठक-परिजन यदि इस सुयोग से वंचित रहे तो उसे एक विडम्बना के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। स्वयं को एक श्रेष्ठ साधक के रूप में विनिर्मित कर अपनी संगठन क्षमता का संवर्द्धन कर अधिक-से-अधिक व्यक्तियों को युगसाधना से जोड़ना इस समय का महानतम युगधर्म कहा जा सकता है। ऐसे विषम समय में और सभी कार्य एक तरफ रख मात्र महाकाल की इच्छानुसार ही अपनी इच्छा-आकांक्षाओं का नियोजन किया जाना चाहिए। यह समय जीवन-साधना द्वारा अपनी आत्मशक्ति को बढ़ाने हेतु तो नियोजित होना ही चाहिए। अपने साथ अधिक-से-अधिक परिजनों को सुरक्षा महाकवच के नीचे लेने हेतु लगना चाहिए। युगशक्ति के प्रवाह से जुड़े रहने की योगसाधना व शक्ति प्रवाह को सार्थक उद्देश्यों में नियोजित करते रहने की तप साधना हम सबको सतत् करते रहना चाहिए। प्रातः ब्राह्ममुहूर्त में वरिष्ठ स्तर के सभी साधकों की 11 माला गायत्री जप अथवा प्रातः-मध्याह्न-सायं तीनों समय में न्यूनतम पंद्रह-पंद्रह मिनट की त्रिकाल संध्या करते रहने की, पूज्यवर की चेतना से सहभागिता करने का उपक्रम इस वेला में विशिष्ट शक्ति का संचार करेगा। यदि इतना संभव न बन पड़े तो प्रातः आधा घंटा व सायं आधा घण्टा जप, उज्ज्वल भविष्य की प्रार्थना, सविता देवता या हिमालय की चेतना का ध्यान एवं पंद्रह मिनट से आधा घण्टा नियमित प्रतिदिन स्वाध्याय यह अवश्य करना चाहिए। जप व ध्यान के साथ मिलन प्राणायाम द्वारा विश्वप्राण के साथ एकात्म होने के भाव का क्रम भी रोज चलाया जा सकता है। (कृपया विस्तार हेतु ‘प्रज्ञा अभियान’ पाक्षिक दिनाँक 16 जनवरी, 1999 का पृष्ठ 2 देखें)

ऊपर शाँतिकुँज द्वारा घोषित साधना वर्ष हेतु विशिष्ट पुरुषार्थ उनके लिए बताया गया है, जिन्हें संगठनकर्ता-युगसृजेता-युगनायक जैसे गंभीर दायित्व अपने कंधों पर अगले दिनों लेने हैं। भारत में शहरों-कस्बों के मुहल्ले मिलाकर प्रायः 7 लाख गाँव हैं। यदि एक-एक सृजन सैनिक सात-सात की जिम्मेदारी ऊपर लेकर न्यूनतम दस अपने सहयोगी साधक तैयार करता है, तो पूरे भारत के चप्पे-चप्पे को गायत्रीमय-साधनासिद्धि बनाया जा सकता है। सृजन सैनिक जिनने कुछ विशिष्ट कर दिखाने का दायित्व अपने ऊपर लिया है- अब इस पुरुषार्थ को संपन्न करने हेतु तत्पर हो जाएँ तो इस प्रखर साधना वर्ष में वह सब स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगेगा जिसे सतयुग-नवयुग की प्रथम किरण के नाम से युगऋषि ने संबोधित किया।


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