गुरुसत्ता की चेतना से जोड़ेगा यह महाप्रयोग

February 1999

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जन्म देकर माता निवृत्त नहीं हो जाती वरन् उत्तरदायित्व प्रकारान्तर से यथावत बना रहता है। गर्भस्थ भ्रूण को वह नाल तन्तु के माध्यम से रस-रक्त पहुँचाती थी, अब वह प्रक्रिया स्तनपान द्वारा चलती है। रक्त का ही समानान्तर प्रतिनिधि दूध होता है। माता की छाती से निकलने वाले दूध में मातृसत्ता का प्रायः समग्र प्रतिनिधित्व सन्निहित रहता है। जननी के शरीर में जो रासायनिक सम्पदा है और चेतना में जो ज्ञान-गरिमा है, उसका सार तत्व माता अपने वक्षस्थल से निःसृत दुग्ध के माध्यम से बालक को पिलाकर सींचती है। यह अनुदान नवजात शिशु को तब तक अनवरत रूप से मिलता रहता है, जब तक कि उसका पाचन-तन्त्र अन्य खाद्य सामग्री ग्रहण करने और पचाने में समर्थ नहीं हो जाता।

यह सूक्ष्म प्रक्रिया की बात हुई, स्थूल प्रक्रिया भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। लालन-पालन भरण-पोषण से सम्बन्धित अगणित एवं विविध-विधि क्रिया-कलाप उसे निरन्तर पूरे करते रहने पड़ते हैं। उसकी ममता और सतर्कता ही अबोध शिशु को जीवित रखने और सुव्यवस्थित रीति से विकसित होने का अवसर देती है। स्पष्ट है कि स्नेह, सुरक्षा और सुव्यवस्था का समुचित प्रबन्ध न हो तो बालक के लिए निरोग एवं दीर्घजीवी रह सकना प्रायः अशक्य ही रहेगा मानव शिशु जन्मजात रूप से परावलम्बी होता है। उसे पग-पग पर माता की सहायता विशेष रूप से और पिता आदि अभिभावकों की साधारण रीति से निरन्तर अपेक्षित रहती है।

अध्यात्म जगत में यही भूमिका शिष्य के प्रति गुरु निर्वाह करता है। पौधा भले ही भूमि से, खाद-पानी और प्रकाश से बढ़ता-पलता हो, पर माली की भूमिका उसके जीवन विकास में कम नहीं होती। शीत-आतप से बचाने, समयानुसार खाद-पानी के साधन जुटाने, पशुओं द्वारा उदरस्थ कर लिए जाने से बचाने, काट-छाँटकर सुन्दर-शोभायमान बनाने में माली की भूमिका इतनी महत्त्वपूर्ण होती है कि उसके बिना अति कठोर स्तर के पेड़-पौधे ही स्वावलम्बी हो सकते हैं। काट-छाँट के बिना वे भी जंगली स्तर के ही रहेंगे। क्रमबद्ध शोभा-सौरभ तो उनमें कदाचित ही रह पाये। व्यक्तित्व को समग्र रूप से विकसित और व्यवस्थित बनाने में गुरु की भूमिका भी कुशल माली जैसी ही होती है। वैदिक काल में अपने देश का हर नागरिक देवोपम जीवन जीता था। यहाँ का हर नागरिक भू-देव कहलाता था। भारतभूमि तैंतीस कोटि देवताओं की देव नागरिकों की स्वर्गादपि गरीयसी क्रीड़ास्थली थी। इसका अधिकाँश श्रेय उन गुरुओं का, जो अपने तप-प्राण शिष्यों में उड़ेलते रहते थे। महत्ता उन शिष्यों की भी कम नहीं-जिनमें सद्गुरु की शक्ति धारण करने की पात्रता थी।

यही कारण है कि प्राचीनकाल में गुरु की गरिमा अत्यधिक उच्चस्तर की थी। उसे गुरुब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुरेव महेश्वर गुरुरेव परब्रह्म........... के पद पर श्रद्धापूर्वक आसीन किया जाता था और गुरु-गोविन्द को प्राथमिकता देने वाले भावनाशील श्रद्धालु गुरु-गौरव को प्राथमिकता देते थे। इसका आधार भी है और कारण भी। नरकीटक को-नरपशु को नारायण एवं पुरुषोत्तम स्थिति तक पहुँचा देने का योजनाबद्ध प्रयास करने वाला, अणु को विभु संज्ञा प्रदान करने वाला, आत्मा को परमात्मा के सदृश बना सकने वाला कलाकार मानवी कल्पना को जिस भी सम्मान से सम्मानित किया जाय कम है।

गुरु ऐसा ही कलाकार है, जो तप-साधना की अति कष्टसाध्य प्रक्रिया अपनाकर अपने को ऐसी प्रचण्ड अग्नि के रूप में विकसित करता है, जिसके संपर्क में आने वाला सहज ही तत्सम बन जाय। इसके लिए उसे आत्मनिग्रह की, आत्म संवर्द्धन की अग्निपरीक्षा में होकर जन्म-जन्मान्तर तक आत्मशोधन करना पड़ता है। तब कहीं वह इस स्थिति में बनता है कि अपना बहुमूल्य संचित तप-प्राण परम निस्वार्थ भाव से अधिकारी शिष्य को प्रदान करके उसे अपनी क्षमता का गौरव उपलब्ध करा सके।

यहाँ चर्चा उस सद्गुरु की, की जा रही है, जो कीट-भृंग का उदाहरण प्रस्तुत कर सकने में समर्थ है। जलती अग्नि में जो वस्तु डाली जाती है, वह जल्दी या देर से उसी के सदृश अग्निरूप हो जाती है। यही परमगुरु का कौशल-अनुदान है। यही वह महाप्रयोग है, जिससे सद्गुरु से अभिन्नता की दिव्य अनुभूति का रसास्वादन मिलता है। निश्चित ही इसके लिए आत्मबल-सम्पन्न गुरु चाहिए, साथ ही शिष्य के लिए आत्मोत्सर्ग का माता जैसा प्रबल वात्सल्य भी होना चाहिए। विद्वता या व्याख्यानबाजी मात्र से यह कार्य नहीं हो सकता। इसके लिए प्रचंड तप-साधना द्वारा उपार्जित आत्मबल सम्पदा की प्रचुर पूँजी का प्रचुर संग्रह आवश्यक है।

युगपरिवर्तन की इस पुण्य वेला में अभीष्ट प्रयोजनों की पूर्ति के लिए ऐसी आत्मबल सम्पन्न विभूतियों की आवश्यकता पड़ेगी, जो भौतिक साधनों से नहीं अपने आत्मबल से जनमानस के विपन्न-प्रवाह को उलट सकने का साहस कर सकें। यह कार्य न तो व्यायामशालाएँ, पाठशालाएँ पूरा कर सकती हैं और न शस्त्रसज्जा से, अर्थसाधनों से पूरा हो सकता है। इसके लिए ऐसे अग्रगामी लोकनायकों की आवश्यकता अनुभव की जा रही है, जो मनस्वी और तपस्वी बनने में अपना गर्व-गौरव अनुभव करें और

जिनकी महत्त्वाकाँक्षाएँ भौतिक बड़प्पन से हटकर आत्मिक महत्ता पर केन्द्रीभूत हो सकें। भौतिक लाभों के लिए लालायित, लोभ-मोह के बन्धनों में जो बुरी तरह आबद्ध हैं, उनके लिए यह मार्ग नहीं है।

मनुष्य में देवत्व के उदय एवं धरती पर स्वर्ग के अवतरण की यह पुण्य घड़ी है। इसमें महामानवों को महत्वपूर्ण भूमिका निबाहनी ही पड़ेगी। वे इस साधनापथ पर अग्रगामी बनेंगे और असंख्यों को अपने पीछे अनुगमन की प्रेरणा देंगे। इतिहास के आकाश में ऐसे ही समर्पित शिष्य उज्ज्वल नक्षत्रों की तरह अनन्तकाल तक चमकते हैं। इन्हीं का निर्माण परमपूज्य गुरुदेव को इन दिनों अभीष्ट है। महाकाल ने इस महाप्रयोग के लिए उन्हीं का आह्वान किया है। युग की आत्मा ने उन्हीं को पुकारा है। ऐसी जीवात्माएँ हम सब के बीच इन दिनों भी मौजूद हैं। दुर्भाग्य ने उन पर मलीनता का आवरण आच्छादित कर दिया है। अन्धकार में वे अपना कर्तव्य देख-समझ नहीं पा रहे हैं और साहसिकता के अभाव में उस दिशा में कदम बढ़ा नहीं पा रहे हैं, जिसके लिए उनमें समुचित पात्रता पहले से ही मौजूद है।

शान्तिकुञ्ज द्वारा इस वसन्त पर्व से प्रारम्भ किए गए प्रखर साधना वर्ष का यही प्रयोजन है। इसे भूतकालीन ऋषि प्रक्रिया की पुनरावृत्ति कहा जा सकता है, जिसमें आत्मसम्पदा से सम्पन्न महर्षि अपने शिष्यों को ऊँचा उठाते और आगे बढ़ाते थे। शरीर को जन्म देने वाली माता जिस प्रकार अपना उत्कृष्ट जीवन रस निचोड़ कर नगण्य से भ्रूण कमल को एक समर्थ मानव बनाती है, ठीक उसी प्रकार का उत्तरदायित्व व्यक्ति की आत्मिक प्रगति में समर्थ सद्गुरु वहन करते हैं। यह प्रक्रिया एक अनोखे जुड़ाव एवं अद्भुत अभिन्नता की रसानुभूति प्रदान करती है। साधना वर्ष में भागीदार होने

वाले साधक इसे अनुभव किए बिना न रहेंगे।

परमपूज्य गुरुदेव अपनी उपार्जित प्रचण्ड तपःशक्ति का महत्वपूर्ण अंश इस वर्ष अपने आत्मीय साधकों में वितरित करेंगे, साथ ही इस बीजारोपण से उत्पन्न अंकुर को भविष्य में भी सींचने-सँभालने का प्रयास करेंगे। माता के गर्भ में बालक लगभग एक वर्ष ही रहता है- प्रखर साधना वर्ष की उपाधि कुछ उसी प्रकार की है। गर्भस्थ शिशु को माता से जिस तरह का अनुदान मिलता है, उससे हल्का नहीं वरन् कुछ भारी ही यहाँ से भी मिलेगा।

प्रसव के उपरान्त माता नवजात शिशु के प्रति अपने कर्तव्य का अन्त नहीं मान लेती वरन् उसके द्वारा उत्पन्न की गयी मलीनता और अव्यवस्था को साफ करती-सँभालती रहती है, साथ ही उसके परिष्कार-परिपोषण के साधन जुटाती रहती है। साधना वर्ष के माध्यम से विनिर्मित शिशु साधकों का भी परमपूज्य गुरुदेव की कारण सत्ता इसी प्रकार का ध्यान रखेगी- यह अतिरिक्त रूप से कहने की आवश्यकता नहीं है।

इतना महान अनुदान प्राप्त करने वाले साधना वर्ष के प्रतिभागियों को हर दृष्टि से सौभाग्यशाली ही माना जाएगा। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि जिन्हें इस स्तर की भागीदारी मिले, उनका भी कुछ दायित्व है। पात्रता विकसित करने के लिए उन्हें साधना वर्ष के सभी अनुबन्धों का निष्ठापूर्वक पालन करना पड़ेगा। इस साधना वर्ष के महाप्रयोग में भागीदार बनने वालों को निश्चित ही परम पूज्य गुरुदेव से अभिन्नता की दिव्य अनुभूति मिले बिना न रहेगी।


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