“यह महाक्रान्ति की वेला है, युग-परिवर्तन की भी। अशुभ की दिशा से शुभ की ओर प्रयाण चल रहा है। प्रवाह बह रहा है। तूफान की दिशा और गति को देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि वस्तुओं को किस दिशा में धकेला और बढ़ाया जाता है। नदी के प्रवाह में गिरे हुए झंखाड़ बहाव की दिशा में ही बहते चले जाते हैं। तूफानों की जो दिशा होती है, उसी में तिनके-पत्ते और धूलिकण उड़ते चले जाते हैं। महाक्रान्ति सदा सृजन और संतुलन के निमित्त उभरती है। पतन और पराभव की विडम्बनाएँ तो कुसंस्कारी वातावरण आये दिन रचाती रहती है। पेड़ पर लगा हुआ फल नीचे की ओर गिरता है। पानी भी ढलान की ओर बहकर निचाई की ओर चलता जाता है, किंतु असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए जब महाक्रान्तियाँ उभरती हैं, तो उसका प्रभाव-परिणाम ऊर्ध्वगमन, उत्कर्ष और अभ्युदय ही होता है। इसलिए उन्हें ईश्वरेच्छा या भगवान का अवतार भी कहा जाता है। उस उभार को देखते हुए यह सहज विश्वास किया जा सकता है कि भविष्य उज्ज्वल है। हम सब शान्ति और प्रगति का लक्ष्य पाने की दिशा में चल रहे हैं। प्राप्त करके भी रहेंगे।”
प्रस्तुत पंक्तियाँ 1989 की जून माह की अखण्ड-ज्योति से उद्धृत हैं। युगऋषि के चिन्तन से स्पष्ट जाना जा सकता है कि कितना स्पष्ट भविष्य का नक्शा उनके समक्ष रहा होगा।